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प्रेमाश्रम

ही घोडा सामने ला कर खड़ा कर दिया। ज्वालासिंह उस पर कूद कर सवार हो गये। ज्ञानशंकर ने समीप आ कर कहा, कहिए भाई साहब, आज सवेरे-सवेरै कहाँ चले?

ज्वाला—जरा लखनपुर जा रहा हूँ। मौका देखना है?

ज्ञान—धूप हो जायेगी।

ज्वाला—कोई परवाह नहीं।

ज्ञान—मैं भी साथ चलू?

ज्वाला—मुझे रास्ता मालूम है।

यह कहते हुए उन्होंने घोडे को एड लगायी और हवा हो गये। ज्ञानशंकर समझ गये कि मेरा मंत्र अपना काम कर रहा है। यह अकृपा इसी का लक्षण हैं। ऐसा न होता तो आज भी वही मीठी-मीठी बातें होती। चलू, जरा शीलमणि को और पक्का कर आऊँ। यह इरादा करके वह ज्वालासिंह के कमरे में जा बैठे। अरदली ने कहा, सरकार बाहर गये है।

ज्ञान—मैं जानता हूँ। मुझसे मुलाकात हो गयी। जरा घर में मेरी इत्तला कर दो।

अरदली—सरकार का हुक्म नहीं है।

ज्ञान—मुझे पहचानते हो या नहीं?

अरदली—पहचानता क्यों नहीं हूँ।

ज्ञान—तो चौखट पर जा कर कहते क्यो नही?

अरदली—सरकार ने मना कर दिया है।

ज्ञानशंकर को अब विश्वास हो गया कि मेरी चाल ठीक पड़ी, ज्वालासिंह ने अपने को पक्षपात-रहित सिद्ध करने के लिए ही यह षड्यन्त्र रचा है। वह सोच ही रहे थे कि शीलमणि से क्योंकर मिलूँ कि इतने में महरी किसी काम से बाहर आयी और ज्ञानशंकर को देखते ही जा कर शीलमणि से कहा। शीलमणि ने तुरन्त उनके लिए पान भेजा और उन्हें दीवानखाने में बैठाया। एक क्षण के बाद वह खुद आ कर पर्दे की आड़ में खड़ी हो गयी और महरी से कहलाया, मैंने बाबू जी से आपकी सिफारिश कर दी है।

ज्ञानशंकर ने धन्यवाद देते हुए कहा, मुझे अब आप ही का भरोसा है।

शीलमणि बोली, आप घबराये नही मैं उन्हे एकदम चैन न लेने दूंगी। ज्ञानशंकर ने ज्यादा ठहरना उचित न समझा। खुशी-खुशी विदा हुए।

उधर बाबू ज्वालासिंह ने घोडा दौडाया तो चार मील पर रुके। उन्हें एक सिगार पीने की इच्छा हुई। जेब से सिगार-केस निकाला, लेकिन देखा तो दियासलाई न थी। उन्हें सिगार से बड़ा प्रेम था। अब क्या हो? इधर-उधर निगाह दौड़ायी तो सामने कुछ दूरी पर एक बहली जाती हुई दिखाई दी। घोड़े को बढ़ा कर बहली के पास आ पहुँचे। देखा तो उस पर प्रेमशंकर बैठे हुए थे। ज्वालासिंह का उनसे परिचय था। कई बार उनकी कृषिशाला की सैर करने गये थे और उनके सरल, सन्तोषमय जीवन का आदर करते थे। पूछा, कहिए महाशय, आज इधर कहाँ चले?