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प्रेमाश्रम

दालान में अँधेरा था। मैं उठा तो कुछ सूझा ही नही कि किधर जाऊँ। न किसी को पुकारते बने, न पूछते। इधर-उधर टटोलने लगा। वहीं एक कोने में मेढ़ा बँधा हुआ था। मैं उसके ऊपर जा पहुँचा। वह मेरे पैर के नीचे से झपट कर उठा और मुझे ऐसा सींग मारा कि मैं दूर जा गिरा। यह धमाका सुनके साली दौड़ी हुई आयी और अन्दर ले गयी। आँगन में मेरे ससुर और दो-तीन बिरादर बैठे हुए थे। मैं भी जा बैठा। पर कुछ सूझता न था कि क्या कहें। सामने खाना रखा था। इतने में मेरी सास कड़े-छड़े पहने छन-छन करती हुई दाल की रकावी में घी डालने आयी। मैंने छन-छन की आवाज सुनी तो रोगटे खड़े हो गये। अभी तक घुटने में दर्द हो रहा था। समझा कि शायद मेढ़ा छूट गया। खड़ा हो कर लगा पैतरे बदलने। सास को भी एक घूसा लगाया। घी की प्याली उनके हाथ से छूट पड़ी। वह घबड़ा के भागी। लोगों ने दौड़ कर मुझे पकड़ा और पूछने लगे, क्या हुआ, क्या हुआ? शरम के मारे मेरी जबान बन्द हो गयी। कुछ बोली ही न निकली। साला दौड़ा हुआ गया और एक मौलवी को लिवा आया। मौलवी ने देखते ही कहा, इस पर सईद मर्द सवार है। दुआ-ताबीज होने लगी। घर में किसी ने खाना न खाया। सास और ससुर मेरे सिरहाने बैठे बड़ी देर तक रोते रहे और मुझे आये बार-बार हँसी। कितना ही रोकें हँसी न रुके। भोरे मुझे नींद आ गयी। भौरे उठ कर मैंने किसी से कुछ पूछा न ताछा, सीधे घर की राह ली। दुखरन भगत, अपनी ससुराल की बात तुम भी कहो।

दुखरन मुझे इस बखत मसखरी नहीं सूझती। यही जी चाहता है कि सिर पटक कर मर जाऊँ।

मनोहर---कादिर भैया, आज बलराज होता तो खून-खराबी हो जाये। उससे यह दुर्गत ने देखी जाती।

कादिर—फिर वही दुखड़ा ले बैठे। अरें जो अल्लाह को यही मंजूर होता कि हम लोग इज्जत-आबरू से रहे तो काश्तकार क्यों बनाता? जमींदार न बनाता, चपरासी न बनाता, थाने की कानिसटिबिल न बनाता किं बैठे-बैठे दूसरों पर हुकुम चलाया करते? नहीं तो यह हाल है कि अपना कमाते है, अपना खाते हैं, फिर भी जिसे देखो धौस जमाया करता है। सभी की गुलामी करनी पड़ती है। क्या जमींदार, क्या सरकार, क्या हाकिम सभी की निगाह हमारे ऊपर टेढ़ी है और शायद अल्लाह भी नाराज हैं। नहीं तो क्या हम आदमी नहीं है कि कोई हमसे बड़ा बुद्धिमान है? लेकिन रो कर क्या करें? कौन सुनता है? कौन देखता है खुदाताला नै आँखे बन्द कर ली। जो कोई अमानुस दरद बूझ कर हमारे पीछे खड़ा भी हो जाता है तो उस बेचारे की जान भी आफत मे फँस जाती है। उसे तंग करने के लिए, फँसाने के लिए तरह-तरह के कानून गढ़ लिए जाते हैं। देखते तो हो, बलराज के अखबार में कैसी-कैसी बातें लिखी रहती हैं। यह सब अपनी तकदीर की सूबी है।

यह कहते-कहते कादिर खाँ रो पड़े। वह हृदय-शाप जिसे वह हास्य और प्रमोद