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प्रेमाश्रम

विलासी--कानीहौज कैसे पठे दैहैं, कोई राहजनी है? हमारे मवेशी सदा से यहाँ चरते आये है और सदा यही चरेगे। अच्छा सरकारी हुकुम है? आज कह दिया चरावर छोड दो, कल कहेगे अपना घर छोडो, पेड तले जा कर रहो। ऐसा कोई अधेर हैं?

इतने मे गौस खाँ और फैजू भी आ पहुँचे। बिलासी के अन्तिम शब्द खाँ साहब के कान मे पडे। डपट कर बोले, अपने जानवरो को फौरन निकाल ले जा, वरना मवेशीखाने भेज दूँगा।

बिलासी--क्यो निकाल ले जाऊँ ? चरावर सारे गाँव का है। जब सारा गाँव छोड़ देगा तो हम भी छोड़ देंगे।

गौस खाँ--जानवरो को ले जाती है कि खडी-खड़ी कानून बघारती है ?

बिलासी–-तुम तो खाँ साहब, ऐसी घुडकी जमा रहे हों जैसे मै तुम्हारा दिया खाती हूँ।

गौस खाँ--फैजू, यह जवाँदराज औरत यो न मानेगी। घेर लो इसके जानवरों को और मवेशीखाने हाँक ले जाओ।

फैजू तो मवेशियों की तरफ लपका, पर कर्तार और बिन्दा महाराज धर्म सकट में पडे खडे रहे। खाँ साहब ने उन्हें भी ललकारा--खडे मुँह क्या देख रहे हो? घेर लो। जानवरो को और हाँक ले जाओ। सरकारी हुक्म है या कोई मजाक है।

अब कर्तार और बिन्दा महाराज भी उठे और जानवरों को चारो ओर से घेरने का आयोजन करने लगे। मवेशियो ने चौकन्नी आँखों से देखा, कान खड़े किये और इधर उधर बिदकने लगे। परिस्थिति को ताड़ गये। विलासी ने कहा, मैं कहती हूँ इन्हें मत घेरो, नहीं तो ठीक न होगा।

किन्तु किसी ने उसकी धमकी पर ध्यान न दिया। थोड़ी देर में सब जानवर घिर गये। और कन्धे से कन्धे मिलाये, कनखियो से ताकते, तीनो चपरासियो के बीच में धीरे-धीरे चले। विलासी एक सदिग्ध दशा में मूर्तिवत् खड़ी थी। जब जानवर कोई बोस कदम निकल गये तब वह उन्मत्तो की भाँति दौडी और हाँफते हुए बोली, मैं कहती हूँ कि इन्हें छोड़ दो, नहीं तो ठीक न होगा।

फैजू--हट जा रास्ते से। कुछ शामत तो नहीं आयी है।

विलासी रास्ते में खड़ी हो गयी और बोली, ले कैसे जाओगे ?

गौस खाँ–-न हटे तो इसकी मरम्मत कर दो।

विलासी–-कह देती हूँ, इन जानवरों के पीछे लोहू की नदी बह जायगी। माथे गिर जायँगे।

फैजू--हटती है या नही चुडैल ?

विलासी--तू हट जा, दाढीजार।

इतना उसके मुँह से निकलना था कि फैजू ने आगे बढ़ कर विलासी की गर्दन की और उसे इतने जोर से झोका दिया कि वह दो कदम पर जा गिरी। उसकी आँखे तिलमिली गयी, मूर्छा सी आ गयी। एक क्षण वह वही अचेत पड़ी रही, तब उठी और लँग-

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