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प्रेमाश्रम

चाहिए । डाक्टर साहब, मुआमले में मुद्दई तो सरकार होगी, लेकिन आप भी मेरी तरफ से पैरवी कीजिएगा। मैंने फैसला कर लिया है कि गाँव के किसी बालिग आदमी को बेदाग न छोडूँगा।

प्रेमाशकर ने दबी जवान से कहा, अगर तुम्हे विश्वास हो कि यह एक आदमी का काम है तो सारे गाँव को समेटना उचित नही । ऐसा न हो कि गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाय ।

ज्ञानशकर क्रुद्ध हो कर बोले, बहुत अच्छा हो अगर आप इस विषय में अपने सत्य और न्याय के नियमों का स्वाँग न रचे । यह इन्ही की बरकत है कि आज इन दुष्टों को इतना साहस हुआ है । आप मुझे साफ-साफ कहने पर मजबूर कर रहे हैं । ये सब आपके ही बल पर कूद रहे है। आपने प्रत्येक अवसर पर मेरे विपक्ष मे उनकी सहायता की है, उनसे भाईचारा किया है । और उनके सिर पर हाथ रखने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं । आपके इसी त्रातृ-भाव ने उनके सिर फिरा दिये । मेरा भय उनके दिल से जाता रहा । आपके सिद्धान्तों और विचारो का मैं आदर करती हूँ, लेकिन आप कडवी नीम को दूध से सीच रहे है और आशा करते है कि मीठे फल लगेगें । ऐसे कुपात्रो के साथ ऊँचे नियमो का व्यवहार करना दीवाने के हाथ में मशाल दे देना है।

प्रेमशंकर ने फिर जबान न खोली और न सिर उठाया । लाला प्रभाशंकर को ये बाते ऐसी बुरी लगी कि वह तुरन्त उठ कर चले गये । लेकिन प्रेमशकर आत्म-परीक्षा में मौन मर्तावत् बैठे रहे । दीन देहातियों के साथ साधारण सज्जनता का वर्ताव करने का परिणाम ऐसा भयकर होगा यह एक बिलकुल नया अनुभव था। केवल एक आदमी की जान ही नहीं गयीं, वरन् और भी कितने ही प्राणो के बलिदान होने की आशंका थी। भगवान् उन गरीबो पर दया करो। मैंने सच्चे हृदय से उनकी सेवा नहीं की । द्वेष का भाव मुझे प्रेरित करता रहा । मैं ज्ञानशकर को नीचा दिखाना चाहता था। यह समस्या उसी द्वेष भाव का दड़ है। क्या एक लखनपुर ही अपने जमीदार के अत्याचार से पीडित था ? ऐसा कौन-सा इलाका है जो जमीदार के हाथो रक्त के आँसू न बहा रहा हो । तो लखनपुरवालो के ही प्रति मेरी सहानुभूति क्यो इतनी प्रचड हो गयी और फिर ऐसे अत्याचार क्या इससे पहले न होते थे ? यह तो आये दिन ही होता रहता था, लेकिन कभी असामियो को चूँ करने की हिम्मत न पडती थी। इस बार यह क्यो मार-काट पर उद्यत हो गये । इन शकाओं का उन्हें एक ही उत्तर मिलता था और वह उस उत्तरदायित्व के भार को और गुरुतर बना देता था। हाय ! मैंने कितने प्राणो को अपनी ईर्षाग्नि के कुड़ में झोक दिया। अब मेरा कर्तव्य क्या है ? क्या यह आग लगा कर दूर से खडा तमाशा देखूँ ? यह सर्वथा निन्छ है । अब तो इन अभागो की यथा योग्य सहायता करनी ही पडेगी, चाहे ज्ञानशकर को कितना ही बुरा लगे। इसके सिवा मेरे लिए कोई दूसरा मार्ग नही है ।

प्रेमशकर इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि मायाशकर ने आ कर कहा, चाचा जी,