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प्रेमाश्रम

पालन करती हूँ, नही तो मेरी इतनी गति कहाँ थी कि भक्तिरस का स्वाद पा सकती।

ज्ञानशकर--मुझे भी यह खेद है कि उन महात्मा के दर्शन से वचित रह गया । जिसके सदुपदेश में यह महान् शक्ति है वह स्वय कितना प्रतिभाशील होगा । मैं कभी कभी स्वप्न में उनके दर्शन से कृतार्थ हो जाता हूँ। कितनी सौम्य मूर्ति थी । मुखारविन्द से प्रेम की ज्योति सी प्रसारित होती हुई जान पड़ती है। साक्षात् कृष्ण भगवान के अवतार मालूम होते है ।

दूसरे दिन से पर्दे की आयोजना हो गयी और गायत्री नित्य प्रति इन सत्सगों में भाग लेने लगी । भक्तो की संख्या दिनों-दिन बढने लगी । कीर्तन के समय लोग भावोन्मत्त हो कर नाचने लगते । गायत्री के हृदय से भी यही प्रेम-तरणें उठती । यहाँ तक कि ज्ञानशकर भी स्थिर चित्त न रह सकते । कृष्ण के पवित्र प्रेम की लीलाएँ उनके चित्त को भी एक क्षण के लिये प्रेम से आभासित कर देती थी और इस प्रकाश में उन्हें अपनी कुटिलता और शुद्रता अत्यन्त घृणोत्पादक दीख पडती । लेकिन सत्सग के समाप्त होने ही यह क्षणिक ज्योति फिर स्वार्थान्धकार में विलीन हो जाती थी। बालक कृष्ण की भोली-भाली क्रीडाएँ, उनकी वह मनोहर तोतली बाते, यशोदा का वह विलक्षण पुत्र-प्रेम, गोपियो को वह आत्म-विस्मृति, प्रीति के वह भावमय रहस्य, वह अनुराग के उद्गार, वह वशी की मतवाली तान, वह यमुना-तट के बिहार की कथाएँ लोगो को अतीव आनन्दप्रद आत्मिक उल्लास का अनुभव देती थी। मूतवादियो की दृष्टि में ये कथाएँ कितनी ही लज्जास्पद क्यो न हो, पर उन भक्तो के अन्त करण इनके श्रवण-मात्र में ही गद्गद हो जाते थे। राधा और यशोदा का नाम आते ही आँखों से आँसू की झड़ी लग जाती थी । कृष्ण के नाम में क्या जादू हैं, इसका अनुभव हो जाना था।

एक बार वृन्दावन में रासलीला मडली आयी और महीने भर तक लीला करती रही। मारा शहर देखने को फट पड़ता था। ज्ञानशकर प्रेम की मूर्ति बने हुए लोगो का आदर-सत्कार करते । छोटे-बड़े सबको खातिर से बैठाते । स्त्रियों के लिए विशेष प्रबन्ध कर दिया गया था। यहाँ गायत्री उनका स्वागत करती, उनके बच्चो को प्यार करती और मिठाई-मेवे बाँटती । जिस दिन कृष्ण के मथुरा-गमन की लीला हुई, दर्शको की इतनी भीड हुई कि साँस लेना मुश्किल था। यशोदा और नन्द की हृदय-विदारणी बातें सुन कर दर्शकों में कोहराम मच गया। रोते-रोते कितने ही भक्तो की धिग्घी बँघ गयी और गायत्री तो मूर्छित हो कर गिर ही पड़ी। होश आने पर उसने अपने को अपने शयनगृह में पाया। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था, केवल ज्ञानशकर उसे पखा झल रहे थे। गायत्री पर इस समय अलमता छायी हुई थी। जब मनुष्य किसी थके हुए पथिक की भाँति अवीर हो कर छाँह की ओर दौडता है, उसका हृदय निर्मल, विशुद्ध प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है। उसने ज्ञानशंकर को बैठ जाने का संकेत किया और तब शैशवोचित सरलता ने उनकी गोद में सिर रख कर आकाक्षापूर्ण भाव से बोली, मुझे वृन्दावन ले चलो ।