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प्रेमाश्रम

से आया हुआ भोजन अभियुक्तों तक पहुंचा देते थे। पर आज उन सबका रूख बदला हुआ था। प्रेमशंकर जेल के सामने खड़े सोच रहे थे, अब क्या करूँ कि पुलिस को प्रधान अफसर जेल से निकला और उन्हें देख कर बोला, यह तुम्हारे ही उपदेशों का फल है, तुम्ही ने शेष अपराधियों को बचाने के लिए यह आत्महत्या करायी है। जेल मे दारोगा ने भी उनसे इसी तरह की बाते की। इन तिरस्कारों से प्रेमशंकर को बड़ा दुख हुआ। जीवन उन्हें नये-नये अनुभवों की पाठशाला जान पड़ता था। यह पहला ही अवसर था कि उनकी दयार्द्रता और सदिक्षा की अवहेलना की गयी। वह आव घटे तक चिन्ता मे डूबे वही खड़े रहे, तद अपने झोंपड़े की ओर चले: मानो अपने किसी प्रियबन्धु की दाह-क्रिया करके रहे हो।

घर पहुँच कर वह फिर उन्हीं विचारो मे मग्न हुए। कुछ समझ में न आता था कि जीवन का क्या लक्ष्य बनाया जाय। क्षुद्र लौकिकता से चित्त को घृणा होती थी और उत्कृष्ट नियमों पर चलने के नतीजे उल्टे होते थे। उन्हें अपनी विवशता का ऐसा निराशाजनक अनुभव कभी न हुआ था। मानव-बुद्धि जितनी भ्रमयुक्त है। उसकी दृष्टि कितनी संकीर्ण—इसका ऐसा प्रमाण कभी न मिला था। यदपि वह अहंकार को अपने पास न आने देते थे, पर वह किसी गुप्त मार्ग से उनके हृदयस्थल में पहुँच जाता था। अपने सहकार्यों को सफल होते देख कर उनका चित उत्साहित हो जाता था और हृदय-कणों मे किसी और से मंद स्वरों में सुनाई देता था—मैंने कितना अच्छा काम किया! लेकिन ऐसे प्रत्येक अवसर पर एक ही क्षण के उपरान्त उन्हें कोई ऐसी चेतावनी मिल जाती थी, जो उन्हें अहंकार को चूर-चूर कर देती थी। मूर्ख! तुझे अपनी सिद्धान्त-प्रियता का अभिमान है! देख वह कितने कच्चे हैं। तुझे अपनी बुद्धि और विद्या का घमंड है! देख, वह कितनी भ्रांतिपूर्ण है। तुझे अपने ज्ञान और सदाचार का गुरूर है! देख वह कितना और भ्रष्ट हैं। क्या तुम्हें निश्चय हैं कि तुम्हारी ही उत्तेजनाएँ की हत्या का कारण नहीं हुई? तुम्हारे ही कटु उपदेशों ने मनोहर की जान नहीं ली? तुन्हारे ही कटु नीति पालन ने ज्ञानशंकर की श्रद्धा को तुमसे विमुख नहीं किया?

यह सोचते-सोचते उनका ध्यान अपनी आर्थिक कठिनाइयों की ओर गया। अभी न जाने यह मुकदमा कितने दिनों चलेगा। इर्मानजी कोई तीन हजार ले चुके और शायद अभी उनका इतना ही बाकी है। गन्ने तैयार हैं. लेकिन हजार रुपये से ज्यादा न ला सकेंगे। बेचारे गाँववालो को कहाँ तक दबाऊँ? फलों के जो कुछ मिल वह सब खर्च हो गया।किसी को अभी हिसाब तक नहीं दिखाया। न जाने यह सब अपने मन में क्या समझते हो। लखनपुर की कुछ खबर न ले सका। मालूम नहीं उन दुखियों पर क्या बीत रही हैं।

अकस्मात भोला की त्री बुधिया आ कर बोली दाबू, दो दिन से घर में चूल्हा नही जल और आपका हलगहा मेरी जान खाए जाता है। बताइए मैं क्या कहें। क्या चोरी करू? दिन भर चक्की पिसती हूँ और जो कुछ पाती हूँ, वह सब गृहस्थी मे झोंक