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प्रेमाश्रम


भौतिक दृष्टि उस प्रेम के ऐन्द्रिक स्वरूप से आगे न बढ़ सकती थी और उसका हृदय इन प्रेम-मुख कल्पनाओं से तृप्त न होता था। वह उन भावो को अनुभव करना चाहती थी। विरह और वियोग, ताप और व्यथा, मान और मनोवन, रास और विहार, आमोद और प्रमोद का प्रत्यक्ष स्वरुप देखना चाहती थी। पहले पति-प्रेम उसका सर्वस्व था। नदी अपने पेटे में ही हलकोरें लिया करती थी। अब उसे उस प्रेम का स्वरूप कुछ मिटा हुला, फीका, विकृत मालूम होता था। नदी उमड़ गयी थी। पति-भक्ति का वह बाँध जो कुल-मर्यादा और आत्मगौरव पर आरोपित था इस प्रेमभक्ति की बाढ़ से टूट गया। भक्ति लौकिक बंधनों को कब ध्यान में लाती है? वह अब उन भावनाओं और कल्पनो को बिना किसी आत्मिक संकोच के हृदय में स्थान देती थी, जिन्हें वह पहले अग्निज्वाला समझा करती थी। उसे अब केवल कृष्ण-क्रीडा के दर्शन-मात्र से सन्तोश न होता था। वह स्वयं कोई न कोई रास रचना चाहती थी। वह उन मनोभावो को वाणी से, कर्म से, व्यक्त करना चाहती थी जो उसके हृदयस्थल में पक्षियों की भति अवाध्य रूप से उड़ा करते थे। और उसका कृष्ण कौन था? वह स्वयं उसे स्वीकार करने का साहस न कर सकती थी, पर उसका स्वरूप ज्ञानशंकर से बहुत मिलता था। वह अपने कृष्ण को इसी रूप में प्रगट देखती थी।

गायत्रि का हृदय पहले भी उदार था। अब वह और भी दानशीला हो गयी थी। उसके यहां अब नित्य सदाव्रत चलता था और जितने साधु-सन्त आ जायँ सबको इच्छापूर्वक भोजन-वस्त्र दिया जाता था। वह देश की धार्मिक और पारमार्थिक संस्थाओं की भी यथासाध्य सहायता करती रहती थी। अब उसे सनातन धर्म से विशेष अनुराग हो गया। अतएव अब की जब सनातन-धर्म-मण्डल का वार्षिकोत्सव गोरखपुर मे होना निश्चय किया गया तब सभासदो ने बहुमत से रानी गायत्री को सभापति नियुक्त किया। यह पहला अवसर था कि यह सम्मान एक विदुषी महिला को प्राप्त हुआ। गायत्री को रानी की पदवी मिलने से भी इतनी खुशी न हुई थी जितनी इस सम्मान पद से हुई। उसने ज्ञानशंकर को, जो सभा के मन्त्री थे, बुलाया और अपने गहनों का सन्दूक दे कर बोली,इसमे ५० हजार के गहने है, मैं इन्हें सनातन धर्मसभा को समर्पण करती हूँ।

समाचार पत्रों में यह खबर छप गयी। तैयारियां होने लगी। मत्री जी का यह हाल था कि दिन को दिन और रात को रात न समझते। ऐसा विशाल सभा भवन कदाचित् ही पहले कभी बना हो। महमानों के आगत-स्वागत का ऐसा उत्तम प्रबन्ध कभी न किया गया था। उपदेशको के लिए एसे बहुमूल्य उपहार न रखे गये थे और न जनता ने कभी सभा से इतना अनुराग ही प्रकट किया था। स्वयसेवको के दल के दल भड़कीली वर्दिया पहने चारों तरफ दौड़ते फिरते थे। पंडाल के अहाते में सैकडो दुकाने सजी हुई नजर आती थी। एक सर्कस और दो नाटक समितिया बुलायी गयी थी। सारे शहर में चहल-पहल देख पड़ती थी। बाजारों में भी विशेष सजावट और रौनक थी। सड़क पर दोनों तरफ वन्दनवारें और पताकाएँ शोभायमान थी।

जलने के एक दिन पहले उपदेशागण आने लगे। उनके लिए स्टेशन पे मोटरे