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प्रेमाश्रम

पर नाराज होते तो यह मानी हुई बात थी कि उसका नक्षत्र बलवान है, सौभाग्य चन्द्र उसके दाहिने हैं, क्योकि क्रोष शान्त होते ही वह अपने कटु व्यवहारो का बड़ी उदारता के साथ प्रायश्चित किया करते थे। एक बार एक टहलवे को इसलिए पीटा था कि उसने फर्श पर पानी गिरा दिया था। दूसरे ही दिन पाँच बीघे जमीन उसे मुआफ दे दी। एक कारिन्दे से गवन के मामले में बहुत बिगड़े और अपने हाथो से हंटर लगाये, किन्तु थोड़े ही दिन पीछे उसका वेतन बढ़ा दिया। हाँ, यह आवश्यक था कि चुपचाप धैर्य के साथ उनकी बाते सुन ली जायें, उनसे बातबढ़ाव न किया जाय। ज्ञानशंकर को धिक्कारने के एक ही क्षण पीछे उन्हें पश्चात्ताप होने लगा। भय हुआ कि कहीं वह रूठ कर चल न दें। संसार में ऐसा कौन प्राणी है जो स्वार्थ के लिए अपनी आत्मा का हनन न करता हो। मैं खुद भी तो निस्पृह नहीं हैं। जब संसार की यही प्रथा है तो मुझे उनका इतना तिरस्कार करना उचित न था। कम से कम मुझे उनके आचरण को कलकित न करना चाहिए था। विचारशील पुरुष हैं, उनके लिए इशारा काफी है लेकिन मैंने गुस्से मे आ कर खुली-सुली गालियाँ दी। अतएव आज वह भोजन करने बैठे नो महाराज से कहा, बाबू जी को भी यहाँ बुला लो और उनकी थाली भी यहां लाओ। न आयें तो कहना आप न चलेंगे तो वह भी भोजन न करेंगे। ज्ञानशंकर राजी न होते थे, पर विद्या ने समझाया, चले क्यों नहीं जाते। जब वह बड़े हो कर बुलाते हैं तो न जाने से उन्हें दुख होगा। उनकी आदत है कि गुस्से में जो कुछ मुंह में आया बक जाते हैं, लेकिन पीछे से लज्जित होते हैं। ज्ञानशंकर अब कोई हीला न कर सके। रोनी सूरत बनाये हुए आयें और राय साहब से जरा हट कर आसन पर बैठ गये। राय साहब ने कहा, इतनी दूर क्यों बैठे हो। मेरे पास आ जाओ। देखो, आज मैंने तुम्हारे लिए कई अँग्रेजी चीजें बनवायी है। लाओ महाराज, यही थाली रखो।

ज्ञानशंकर ने दबी जबान से कहा, मुझे तो इस समय जरा भी इच्छा नहीं है, क्षमा कीजिए।

राय साहब इच्छा तो सुगन्ध से हो जायगी, थाली सामने तो आने दो। महाराज को मैंने इनाम देने का वादा किया है। उसने अपनी सारी अक्ल खर्च कर दी होगी।

महाराज ने थाली ला कर ज्ञानशंकर के सामने रख दी। ज्ञानशंकर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थी। एक रंग आता था, एक रंग जाता था। छाती बड़े वैग से धड़क रही थी। भय ने आशा को दबा दिया था। वह किसी प्रकार यहीं से भागन चाहते थे। यह दृश्य उनके लिए असह्य था। उनके शरीर का एक-एक अंग यरथर काँप रहा था, यहाँ तक कि स्वर भी भंग हो रहा था। उन्हें इस समय अनुभव हो रहा था कि जान लेना देने से कही दुस्तर है।

राय साहब ने पाँच ही चार कौर खाये थे कि सहसा उन्होंने थाली से हाथ खींच लिया और ज्ञानशंकर को तीव्र और मर्म-भेदी दृष्टि से देखा। ज्ञानशंकर के प्राण सूख