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प्रेमाश्रम

रोमांचकारी न था। वह एक-एक वाक्य को इस तरह डर-डरकर पढ़ते, मानों किसी अँधेरी गुफा में कदम रखते हों। भय लगा रहता था कि कहीं उस दुर्घटना का जिक्र न आ जाय। बहुधा साधारण वाक्यों पर विचार करने लगते कि इसमें कोई गुढ़ाशय, कोई रहस्य, कौई उक्ति तो नहीं है। दसवें दिन गायत्री के यहाँ से एक बहुत लम्बा पत्र आया। ज्ञानशंकर ने उसे हाथ में लिया तो उनकी छाती बल्लियों उछलने लगी। बड़ी मुश्किल से पत्र खोला और जैसे हम कड़वी दवा को एक ही घूट में पी जाते हैं, उन्होंने एक ही सरसरी निगाह में सारा पत्र पढ़ लिया। चित्त शांत हुआ। रायसाहब की कोई चर्चा न थी। तब उन्होंने निश्चिन्त हो कर पत्र को दुबारा पढ़ा। गायत्री ने उनके पत्र न भेजने पर मर्मस्पर्शी शब्दों में अपनी विकलता प्रकट की थी और उन्हें शीघ्र ही गोरखपुर आने के लिए बड़े विनीत भाव से आग्रह किया था। ज्ञानशंकर ने सावधान हो कर साँस ली। गायत्री ने अपने चित्त की दशा को छिपाने का बहुत प्रयत्न किया था, पर उनका एक-एक शब्द ज्ञानशंकर की मरणासन्न आशाओं के लिए सुवा के तुल्य था। आशा बँधी, सन्तोष हुआ कि अभी बात नहीं बिगड़ी, मैं अब भी जरूरत पड़ने पर शायद उसकी दृष्टि में निर्दोष बन सकें, शायद राय साहब के लांछनों को मिथ्या सिद्ध कर सकें, शायद सत्य को असत्य कर सकें। सम्भव है, मेरे सजल नेत्र अव भी मेरी निर्देषिता का विश्वास दिला सके। इसी आवेश में उन्होंने गायत्री को पत्र लिखा, जिसका अधिकांश विरह-व्यथा में भेंट करने के बाद उन्होंने राय साहब के मिथ्याक्षेप की ओर भी संकेत किया। उनके अन्तिम शब्द थे-आप मेरे स्वभाव और मनोविचारों से भलीभाँति परिचित हैं। मुझे अगर जीवन में कोई अभिलाषा है तो यहीं कि मुरली की धुनि सुनते हुए इस असार संसार से प्रस्थान कर जाऊँ। मरने लगें तो उसी मुरलीवाले की सूरत आँखों के सामने हो, और यह सिर राधा की गोद में हो। इसके अतिरिक्त मुझे कोई इच्छा और कोई लालसा नहीं है। राधिका की एक तिरछी चितवन, एक मृदुल मुस्कान, एक मीठी चुटकी, एक अनोखी छटा पर समस्त संसार की सम्पदा को न्योछावर कर सकता हूँ। पर जब तक संसार में हैं संसार की कालिमा से क्योंकर बच सकता? मैंने राय साहब से संगीत-परिपद के विषय में कुछ स्पष्ट भाषण किया था। उसका फल यह हुआ कि अब वे मेरी जान के दुश्मन हो गये हैं। आपसे अपनी विपत्ति-कथा क्या कहूँ, आपको सुन कर दुःख होगा। उन्होंने मुझे मारने के लिए पिस्तौल हाथ में लिया था। अगर भाग न आता तो यह पत्र लिखने के लिए जीवित न रहता। मुझे हुक्म हुआ है कि अब फिर उन्हें मुंह न दिखलाऊँ। इतना ही नहीं, मुझे आपसे भी पृथक् रहने की आज्ञा मिली है। इस आज्ञा को भंग करने का ऐसा कठोर दंड निर्वाचित किया गया है कि उसका उल्लेख करके मैं आपके कोमल हृदय को दुःखाना नहीं चाहता। मेरे मौनव्रत का यही कारण हैं। सम्भव है, आपके पास भी इस आशय का कोई पत्र पहुँचा हो और आपको भी मुझे दूध की मक्खी समझने का उपदेश किया गया हो। ऐसी दशा में आप जो उचित समझे करें। पिता की आज्ञा के सामने सिर झुकाना आपका कर्तव्य है। उसका आप पालन करें। मैं आपसे दूर रह