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प्रेमाश्रम

था। उसकी छाँह मे हरी घास पर लेटी हुई वह कभी गाती, कभी रोती, कभी-कभी उद्विग्न हो कर टहलने लगती। कभी सोचती, लेखनऊ चलें, कभी ज्ञानशंकर को तार दे कर बुलाने का इरादा करती, कभी निश्चय करती, अब उन्हें कभी बाहर न जाने देंगी। उनकी सुरत उसकी आँखों में फिरा करती, उनकी बातें कानों में गूंजा करती। कितना मनोहर स्वरूप है, कितनी रसीली बातें। साक्षात् कृष्णरूप है। उसे आश्चर्य होता कि मैंने उन्हें अकेले क्यों जाने दिया? क्या मैं उनके साथ न जा सकती थी? वह ज्ञानशंकर को पत्र लिखती तो उनकी निर्दयता और हृदय-शून्यता का खूब रोना रोती। उनके पत्र आते तो बार-बार पढ़ती। उसके प्रेम-कथन में अब सकोच या लज्जा बाधक न होती थी। गोपियों की विरह-कथा मे उसे अब एक करुण वेदनामय आनन्द मिलता था। प्रेमसागर की दो-चार चौपाइयाँ भी न पढ़ने पाती कि आँखो से आँसू की झड़ी लग जाती।

लेकिन जब ज्ञानशंकर वनारस चले गये और उनकी चिट्ठ्यों का आना बिलकुल बन्द हो गया तब गायत्री को ऐसा अनुभव होने लगा मानो मैं इस संसार से हूँ ही नहीं। यह कोई दूसरा निर्जन, नीरव, अचेतन संसार है। उसे ज्ञानशंकर के बनारस आने का समाचार ज्ञात न था। वह लखनऊ के पते से नित्यप्रति पत्र भेजती रही लेकिन जब लगातार कई पत्रों का जवाब न आया तब उसे अपने ऊपर झुंझलाहट होने लगी। वह गोंपियों की भाँति अपना ही तिरस्कार करती कि मैं क्यों ऐसे निर्दय, निष्ठुर, कठोर मनुष्य के पीछे अपनी जान खपा रहीं हैं। क्या उनकी तरह मैं भी निष्ठुर नहीं बन सकती। वह मुझे भूल सकते है तो मैं उन्हें नहीं भूल सकती है किन्तु एक ही क्षण में उसका यह मान लुप्त हो जाता और वह फिर खोयी हुई सी इधर-उधर फिरने लगती।

किन्तु जब दसवें दिन ज्ञानशंकर का विवशता सूचक पत्र पहुँचा तो पढ़ते ही गायत्री का चंचल हृदय अधीर हो उठा। वह उस विवशकारी आवेश के साथ उनकी ओर लपकी। यह उसकी प्रीति की पहली परीक्षा थी। अब तक उसका प्रेम-मार्ग काँटो से साफ था। यह पहला काँटा था जो उसके पैरो में चुभा। क्या यह पहली ही बाधा मुझे प्रेम-मार्ग से विचिलित कर देगी? मेरे ही कारण तो ज्ञानशंकर पर मुसीबते आयी है। मैं ही तो उनकी इन विडम्बनाओं की जड़ हूँ? पिता जी उनसे नाराज है तो हुआ करे, मुझे इसकी चिन्ता नहीं। मैं क्यों प्रेम नीति से मुंह मोड़ूँ? प्रेम का संबंध केवल दो हृदयों से है, किसी तीसरे प्राणी को उसमे हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं। आखिर पिता जी ने उन्हें क्यों मुझसे पृथक् रहने का आदेश किया? वे मुझे क्या समझते हैं? उनका सारा जीवन भोग-विलास में गुजरा है। वह प्रेम के गूढाशय क्या जाने? इस पवित्र मनोवृत्ति का क्या ज्ञान? परमात्मा ने उन्हें ज्ञानज्योति प्रदान की होती तो वह ज्ञानशंकर के आरमोत्कर्ष को जानते, उनकी आत्मा का महत्त्व पहचानते। तब उन्हें विदित होता कि मैंने ऐसी पवित्रात्मा पर दोषारोपण करके कितनी घोर अन्याय किया है। पिता की आज्ञा मानना मेरा धर्म अवश्य है, किन्तु प्रेम के सामने पिता की आज्ञा