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प्रेमाश्रम


की जो प्रतिष्ठा थी वह लुप्त हो गयी। भाई का अपने भाई की सिफारिश करना सर्वथा स्वाभाविक और मानवचरित्रानुकूल है। इसे बह बहुत बुरा नहीं समझते थे, किंतु भाई का अहित करने के लिए नैतिक सिद्धान्तों का आश्रय लेना वह एक अमानुषिक व्यापार समझते थे। ऐसे दुष्प्रकृति मनुष्यों को जो आठों पहर न्याय और सत्य की हांक लगाते फिरते हो मर्माहत करने का यह अच्छा अवसर मिला। बोले, आपको भ्रम हुआ है। ईजाद हुसैन ने मुझसे इस विषय में कोई बातचीत नहीं की। और न इसकी जरूरत ही थी, क्योंकि मैं अपने फैसले में दयाशंकर को पहले ही निरपराध लिख चुका हूँ। और सब को यह भली-भाँति मालूम है, कि मैं किसी को नहीं सुनता। मैंने पक्षपात-रहित हो कर यह धारणा की है और मुझे आशा है कि आप यह सुन कर प्रसन्न होंगे।

ज्ञानशंकर का मुख पीला पड़ गया, मानो किसी ने उसके घर में आग लगाने का समाचार कह दिया हो। हृदय में तीर-सा चुभ गया। अवाक् रह गये।

ज्वालासिंह-गवाह कमजोर थे। मुकदमा बिलकुल बनावटी था।

ज्ञानशंकर-यह सुन कर असीम आनन्द हुआ। आपको हजारों धन्यबाद। चाचा साहब तो सुन कर खुशी से बावले हो जायेगें।

ज्वालासिंह इस चुटकी से पीड़ित हो कर बोले, यह कानून की बात है।

ज्ञानशंकर--आप चाहे जो कुछ कहें, पर मैं तो इसे अनुग्रह ही समझूँगा। मित्रता कानून की सीमा को को अज्ञात रूप से विस्तृत कर देती है। इसके सिवा आप लोगों को भी तो पुलिस को दबाव मानना पड़ता है। उनके द्रोही बनने से आप लोगों के मार्ग में कितनी बाधाएँ पड़ती है, इसे भी तो विचारना ही पड़ता हैं।

ज्वालासिंह इस व्यंग से और भी तिलमिला उठे। गर्व से बोले, यहाँ जो कुछ करते है न्याय के बल पर करते हैं। पुलिस क्या, ईश्वर के दबाव को भी नहीं मान सकते। आपकी इन बातों मे कुछ वैमनस्य की गंध आती है। मुझे संदेह होता है कि दयाशंकर का मुक्त होना आपको अच्छा नहीं लगा।

ज्ञानशंकर ने उत्तेजित होकर कहा, यदि आपको ऐसा संदेह है तो यह कहने के लिए मुझे क्षमा कीजिए कि इतने दिनों तक साथ रहने पर भी आप मुझसे सर्वथा अपरिचित हैं। मेरी प्रकृति कितनी ही दुर्बल हो, पर अभी इस अघोगति को नहीं पहुँची है कि अपने भाई की और हाथ उठाये। मगर यह कहने में भी मुझे संकोच नहीं है। कि भ्रातृ-स्नेह की अपेक्षा मेरी दृष्टि में राष्ट्र-हित का महत्त्व कहीं अधिक है और जब इन दोनों में विरोध होगा तो मैं राष्ट्र-हित की ओर झुकूँगा। यदि आप इसे वैमनस्य या ईर्ष्या समझे तो यह आपकी सज्जनता है। मैरी नीति-शिक्षा ने मुझे यही सिखाया है और यथासाध्य उसका पालन करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। जब एक व्यक्ति-विशेष से जनता को अपकार होता हो तो हमारा धर्म है कि उस व्यक्ति का तिरस्कार करें और उसे सीधे मार्ग पर लायें, चाहे वह कितना ही आत्मीय हो। संसार के इतिहास में ऐसे उदाहरण अप्राप्य नहीं हैं, जहाँ राष्ट्रीय कर्तव्य ने कुल-हित पर विजय पायी है, ऐसी दशा में जब आप मुझ पर दुराग्रह का दोषारोपण करते हैं तो मैं इसके