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प्रेमाश्रम


गायत्री-विद्या, तबीयत को जरा सँभालो। तुमने कुछ खा तो नहीं लिया है। डाक्टर को बुलाऊँ।

विद्या-मुझे इससे बचाऔ, ईश्वर के लिए मुझे इससे बचाओ।

गायत्री--पहचानती नही हो, बाबूजी है।

विद्या--नहीं-नहीं यह पिशाच है। इसके लम्बे बाल है। वह देखो दाँत निकाले मेरी और दौड़ा आता है। हाय-हाय। इसे भगा, मुझे खा जायेगा। देखो-देखो मुझे पकड़े लेता है। इसके सींग है, बड़े-बड़े दाँत है, बड़े-बड़े नख है। नहीं, मैं न जाऊँगी। छोड़ है दुष्ट, मेरी हाथ छोड़ दे। हाय! मुझे अग्निकुड में झोके देता हैं। अरे देखो, माया को पकड़ लिया। कहता है, बलिदान दूंगा। दुष्ट, तेरे हृदय मे जरा भी दया नही है उसे छोड़ दे, मैं चलती हूँ, मुझे कुण्ड में झोक दे, परे ईश्वर के लिए उसे छोड़ दे। यह कहते-कहते विद्या फिर मूर्छित हो कर गिर पड़ी। ज्ञानशंकर ने लज्जायुक्त चिंता से कहा, जहर खा लिया। मैं अभी डाक्टर प्रियनाथ के यहाँ जाता हूँ। शायद उनके यत्न से अब भी इसके प्राण बच जाये। मुझे क्या मालूम था कि माया को तुम्हारी गोद में देने का इसे इतना दु ख होगा। मैंने इसे आज तक न समझा। यह पवित्र आत्मा थी, देवी थी, मेरे जैसे लोभी, स्वार्थी मनुष्य के योग्य न थी।

यह कह कर वह आंख में आँसू भरे चले गये। श्रद्धा ने विद्या को उठा कर गोद में ले लिया। गायत्री पंखा झलने लगी। माया खड़ा रो रहा था। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था, वह सन्नाटा जो मृत्यु-स्थान के सिवा और कहीं नहीं होता। सब की सर्व विद्या को होश में लाने का प्रयास कर रही थी, पर मुँह से कोई कुछ न कहता था। सब के दिलो पर मृत्यु-भय छाया हुआ था।

आध घंटे के बाद विद्या की आँखें खुली। उसने चारों ओर सहमे हुए नेत्रों से देख कर इशारे से पानी माँगा।

श्रद्धा ने गुलाबजल और पानी मिला कर कटोरा उसके मुंह से लगाया। उसने पानी पीने को मुंह खोला, लेकिन ओठ खुले रह गये, अंगो पर इच्छा का अधिकार नही रहा। एक क्षण में आँखों की पुतलियाँ फिर गयी।

श्रद्धा समझ गयी कि यह अंतिम क्षण है। बोली-बहिन, किसी से कुछ कहना चाहती हो? माया तुम्हारे सामने खड़ा है।

विद्या की बुझी हुई आँखे श्रद्धा की ओर फिरी, आँसू की चन्द बूंदें गिरी, शरीर में कम्पन हुआ और दीपक बुझ गया!

एक सप्ताह पीछे मुन्नी भी हुड़क-हुड़क कर बीमार पड़ गयी। रात-दिन अम्माँ-अम्माँ की रट लगाया करती। न कुछ खाती न पीती, यहाँ तक कि दवाएँ पिलाने के समय मुंह ऐसा बन्द कर लेती कि किसी तरह न खोलतीं। श्रद्धा गोद में लिये पुचकारीफुसलाती, पर सफल न होती। बेचारा माया गोद में लिए उसके मुरझाये मुंह की ओर देखता और रोता। ज्ञानशंकर को तो अवकाश न मिलता था, पर लाला प्रभाशंकर दिन में कई बार डाक्टर के पास जाते, दवाएँ लाते, लड़की का मन बहलाने के लिए