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प्रेमाश्रम


बड़ी बहू जानती थी कि जब तक घर में रुपये रहेगे इनका हाथ न रुकेगा, साल-आघ-साल में सारी रकम खा-पी कर बराबर कर देंगे, इसलिए जब घर में आग है लगायी है तो क्यों न हाथ सेंक ले। अवसर पाते ही उसने दोनो कन्याओं के विवाह की बातचीत छेड़ दी। यद्यपि लड़कियाँ अभी विवाह के योग्य न थी, पर मसहलत यही थी कि चलते हाथ इस भार से उऋण हो जायें। जिस दिन ज्वालासिंह अपील दायर करने चले उसी दिन लाला प्रभाशंकर ने फलदान चढ़ाये। दूसरे ही दिन से वह बारातियों के आदर-सत्कार की तैयारियों में व्यस्त हो गये। ऐसे सुलभ कार्यों में वह किफायत को दूषित ही नही, अक्षम्य समझते थे। उनके इरादे तो बहुत बड़े थे, लेकिन कुशल यह थी कि आजकल प्रेमशंकर प्राय नित्य उनकी मदद करने के लिए आ जाते। प्रभाशंकर दिल से उनका आदर करते थे, इसलिए उनकी सलाहे सर्वथा निरर्थक ने होती। विवाह की तिथि अगहन मे पड़ती थी। वे ड़ेढ़-दो महीने तैयारियों में ही कटें। प्रेमशंकर अक्सर सन्ध्या को यही भोजन भी करते और कुछ देर तक गपशप करके हाजीपुर चले जाते। आश्चर्य यह था कि अब महाशय ज्ञानशंकर भी चाची से प्रसन्न मालूम होते थे। उन्होंने गोरखपुर से कई बोरे चावल, शक्कर और कई कुप्पे घी भेजे। विवाह के एक दिन पहले वह स्वयं आये और बड़े ठाट-बाट से आये। कई सशस्त्र सिपाही साथ थे। फर्श-कालौने, दरियाँ तो इतनी लाये थे कि उनसे कई बरातें सज जाती। दोनो वरों को सौने की एक-एक घड़ी और एक-एक मोहनमाला दी। बरातियों को भोजन करते समय एक-एक अशर्फी भेंट की। दोनो भौजियों के लिए सोने के हार बनवा लाये थे और दोनों समधियों को एक-एक सजी हुई पालकी भेंट की। बरात के नौकरो, कहारों और नाइयों को पाँच-पाँच रुपये विदाई दी। उनकी इस असाधारण उदारता पर सारा घर चकित हो रहा था और प्रभाशंकर तो उनके ऐसे भक्त हो गये मानो वह कोई देवता थे। सारे शहर में वाह-वाह होने लगी। लोग कहते थे-भरा हाथी तो भी नौ लाख की। बिगड़े गये लेकिन फिर भी हौसला और शान वही है। यह पुराने रईसो का ही गुर्दा है! दूसरे क्या खा कर इनकी बराबरी करेंगे? घर में लाखों भरे हों, कौन देखता है। यही हौसला अमीरी की पहचान है। लेकिन यह किसे मालूम था कि लाला साहब ने किन दामों यह नामवरीखरीदी है।

विवाह के बाद कुछ दिन तो बची-खुची कामग्रियों से बाला प्रभाशंकर की रसना तृप्त होती रही, लेकिन शनैः शनै यह द्वार भी बन्द हुआ और रूखे फीके भोजन पर कटने लगी। उस वर्षा के बाद यह सूखा बहुत अखरता था। स्वादिष्ट पदार्थों के बिना उन्हें तृप्ति में होती थी। रूखा भोजन कंठ से नीचे उतरता ही न था। बहुघा चौके पर से मुंह जूठा करके उठ आते, पर सारे दिन जी ललचाया करता। अपनी किताब खोल कर उसके पन्ने उलटते कि कौन सी चीज आसानी से बन सकती हैं, पर वहाँ ऐसी कोई चीज न मिलती। बेचारे निराश हो कर किताब बन्द कर देते और मन को बहलाने के लिए बरामदे में टहलने लगते। बार-बार घर में जाते, आत्मारियों और ताखो की और उत्कण्ठित नेत्री से देखते कि शायद कोई चीन निकल आये। अभी