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प्रेमाश्रम

कर दे, जिसको वह सदैव याद करते रहे। भाँति-भाँति के पकवान बनने लगे। बहुत जल्दी की गयी, फिर भी खाते-खाते आठ बज गये। प्रियनाथ और इफनअली ने अपनी सवारियाँ भेज दी थी। उस पर बैठ कर लोग लखनपुर चले। सब ने मुक्त कंठ से आशीर्वाद दिये। अभी घरवाले बाकी थे, उनके खाने में दस बज गये। प्रेमशंकर हाजीपुर जाने को प्रस्तुत हुए तो महरी ने आ कर धीरे से कहा, बहू जी कहती है कि आज यही सो रहिए। रात बहुत हो गयी है। इस असाधारण कृपा-दृष्टि ने प्रेमशंकर को चकित कर दिया। वह इसका मर्म न समझ सके।

ज्वालासिंह ने महरी से हँसी की—हम लोग भी रहे या चले जायें?

महरी सतर्क थी। बोली-नहीं सरकार, आप भी रहे, माया भैया भी रहे, यहाँ किस चीज की कमी है।

ज्वाला---चल, बाते बनाती है।

महरी चली गयीं तो वह प्रेमशंकर से बोले-आज मालूम होता है आपके नक्षत्र बलवान हैं। अभी और विजय प्राप्त होनेवाली हैं।

प्रेमशंकर ने विरक्त भाव से कहा--कोई नया उपदेश सुनना पड़ेगा और क्या?

ज्वाला--जी नहीं, मेरा मन कहता है कि आज देवी आपको वरदान देगी। आपकी तपस्या सफल हो गयी।

प्रेम---मेरी देवी इतनी भक्तवत्सला नहीं है।

ज्वाला--अच्छा, कल आप ही ज्ञात हो जायेगा। हमे आज्ञा दीजिए।

प्रेम-क्यों, यही न सो रहिए।

ज्वाला--मेरी देवी और भी जल्द रूठती है।

यह कह कर वह मायाशंकर के साथ चले गये।

महरी ने प्रेमशंकर के लिए पलंग बिछा दिया था। वह लेटे तो अनिवार्यत मन मे जिज्ञासा होने लगी कि श्रद्धा आज क्या मुझपर इतनी सदय हुई हैं। कही यह महरी का कौशल तो नही है। नहीं, महरी ऐसी हँसोड तो नहीं जान पड़ती। कही वास्तव में उसने दिल्लगी की हो तो व्यर्थ लज्जित होना पड़े। श्रद्धा न जाने अपने मन में क्या सोचे। अन्त मे इन शंकाओं को शान्त करने के लिए उन्होने ज्ञानशंकर की आलमारी में से एक पुस्तक निकाल ली और उसे पढ़ने लगे।

ज्वालासिंह की भविप्यवाणी सत्य निकली। आज वास्तव में उनकी तपस्या पूरी हो गयी थी। उनकी सुकीर्ति ने श्रद्धा को वशीभूत कर लिया था। आज जब से उसने सैकड़ो आदमियों को द्वार पर खड़े प्रेमशंकर की जय-जयकार करते देखा था तभी से उसके मनमें यह समस्या उठ रही थी—क्या इतने अन्त करणों से निकली हुई शुभेच्छा का महत्त्व प्रायश्चित्त से कम है? कदापि नहीं। परोपकार की महिमा प्रायश्चित्त से किसी तरह कम नहीं हो सकती, बल्कि सच्चा प्रायश्चित्त तो परोपकार ही है। इतनी आशीषे किसी महान् पापी का भी उद्धार कर सकती है। कोरे प्रायश्चित्त को इनके सामने क्या महत्त्व हो सकता है और इन आशीषों का आज ही थोड़े ही अन्त हो

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