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प्रेमाश्रम


कादिर-सब अल्लाताला का फजल है। तुम्हारे जान-माल की खैर मनाया करते हैं। आज वो रहना होगा न?

माया---यही इरादा करके तो चला हूँ।

थोड़ी देर में वहाँ गाँव के सब छोटे-बड़े आ पहुँचे। इधर-उधर की बातें होने लगी। कादिर ने पूछा-बेटा, आजकल कौसिल में क्या हो रहा है? असामियों पर कुछ निगाह होने की आशा है या नहीं?

माया-हाँ, है। चचा साहब और उनके मित्र लोग बड़ा जोर लगा रहे है। आशा है कि जल्दी ही कुछ न कुछ नतीजा निकलेगा।

कादिर—अल्लाह उनकी मेहनत सुफल करे। और क्या दुआ दे? रो-रो से तो दुआ निकल रहीं है। काश्तकारो की दशा बहुत कुछ सुधरी है। बेटा, मुझी को देखो। पहले वीस बीघे का काश्तकार था, १०० रु० लगान देना पड़ता था। दस-बीस रुपये साल नजराने में निकल जाते थे। अब जुमला २० रु० लगान है और नजराना नहीं लगता। पहले अनाज खलिहान से घर तक न आता था। आपके चपरासी-कारिन्दे वही गला दबा कर तुलवा लेते थे। अब अनाज घर मे भरते है और सुभीते से बेचते है। दो साल में कुछ नहीं तो तीन-चार सौ बचे होगे। डेढ सौ की एक जोडी बैल लायें, घर की मरम्मत करायी, सायवान डाला, हाँडियो की जगह तावे और पीतल के बर्तन लिए। और सबसे बड़ी बात यह है कि अब किसी की घौस नहीं। मालगुजारी दाखिल करके चुपके घर चले आते है। नहीं तो हर दम जान सूली पर चढी रहती थी। अब अल्लाह की इबादत में भी जी लगता है, नहीं तो नमाज भी बोझ मालूम होती थी।

माया-तुम्हारा क्या हाल है दुखरन भगत।

दुखरन–भैया, अब तुम्हारे अकवाल से सब कुशल है। अब जान पड़ता है। कि इम भी आदमी हैं, नही तो पहले बैलो से भी गये बीते थे। बैल तो हर से आता है तो आराम से भोजन करके सो जाता है। यहाँ हर से आकर बैल की फिकिर करनी पड़ती थी। उससे छुट्टी मिली तो कारिन्दै साहब की खुशामद करने जाते। वहाँ से दसग्यारह बजे लौटते, तो भोजन मिलता। १५ बीघे का काश्तकार था। १० बीघे मौल्स थे। उनके ५० रु० लगान देता था। ५ बीधे सिकमी जोतते थे। उनके ६० रु० देने पडते थे। अब १५ बीघे के कुल ३० रु० देने पड़ते हैं। हरी-बेगारी, गजर-नियाज़ सबसे गला छूटा। दो साल में तीन-चार सौ हाथ में हो गये। १०० ९७ की एक पछाही भैसे लाया हूँ। कुछ करना था, चुका दिया।

सुखदास-—और तबला-हारमोनियम लिया है, वह क्यों नहीं कहते? एक पक्का कुआँ बनवाया है उसे क्यो छिपाते हो? भैया, यह पहले ठाकुर जी के बड़े भगत थे। एक बार वेगार में पकड़े गये वो आकर ठाकुर जी पर क्रोध उतारा। उनकी प्रतिमा को तोड़-ताड कर फेंक दिया। अब फिर ठाकुर जी के चरणों में इनकी श्रद्धा हुई है। भजन-कीर्तन का सच सामान इन्होने मँगवाया है!

दुखरन--छिपा क्यों? मालिक से कौन परदा? यह सब उन्ही का अकवाल तो है।