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प्रेमाश्रम

अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशकर को बँटवारै के विषय में अब कोई असुविधा न रही। लाला प्रभाशंकर ने उन्ही की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवान खाना उनके लिए खाली कर दिया, लखनपुर मोसल्लम उनके हिस्से में दे दिया, और घर की अन्य सामग्रियाँ भी उन्ही की मरजी के मुताबिक बाँट दी। बड़ी बहू की ओर से विरोध की शका थी, लेकिन इस एहसान ने उनकी जवान ही नहीं बद कर दी, वरन् उनके मनोमालिन्य को भी मिटा दिया। प्रभाअगर अब वडी बहू से, नौकरो से, मित्रो से, सम्वन्धियो से ज्ञानशकर की प्रशंसा किया करते और प्राय अपनी आत्मीयता को किसी न किसी उपहार के स्वरूप में प्रकट करते। एक दुशाला, एक चाँदी को थान, कई सुंदर चित्र, एक बहुत अच्छा ऊनी कालीन और ऐगी ही विविध वस्तुएँ उन्हें भैट की। उन्हें स्वादिष्ट पदार्थों से चडी रुचि थी। नित्य नाना प्रकार के मुरब्बे, चटनियाँ, अचार बनाया करते थे। इस कला मे प्रवीण थे। आप भी चौक से साते थे, और दूसरो को खिला कर आनदित होते थे। ज्ञानशकर के लिए नित्य कोई न कोई स्वादिष्ट पदार्थ बना कर भेजते। यहाँ तक कि ज्ञानशकर इन मद्भावो से तग आ गये। उनकी आत्मा अभी तक उनकी कपट-नीति पर उनको लज्जित विया करती थी। यह खातिरदारियाँ उन्हें अपनी कुटिलता की याद जिलाती थी और इसमे उनका चित्त दुखी होता था। अपने चाचा की सरल-हृदयता और सज्जनता के नाग्ने अपनी धूर्तता और मलीनता अत्यंत घृणित दीख पड़ती थी।

लखनपुर ज्ञानशकर की चिर अभिलाषाओ को स्वर्ग था। घर की सारी सम्पत्ति मै ऐसा उपजाऊ, ऐसा समुद्धिपूर्ण और कोई गाँव नही था जो शहर से मिला हुआ, पक्की महक के किनारे और जलवायु भी उत्तम। यहाँ कई हलो की सीर थी, एक कच्चा पर मुदर मकान भी था और सबसे बड़ी देत यह है कि यहां इजाफा लगान की बड़ी गुजाइश थी। थोड़े उद्योग से उनका नफा दूना हो सकता था। दो चार कञ्चै कुएँ खुदवा कर इजाफे की कानूनी शर्त पूरी की जा सकती थी। बँटवारे को एक सप्ताह भी न हुआ या कि ज्ञानशकर ने गौस सौ को बुलाया, जमावदी की जाँच की, इजाफा बेदखली की परत तैयार की और असामियों पर मुकदमा दायर करने का हुक्म दे दिया। अब तक सौर विलकुल न होती थी। इसका भी प्रक्ष किया। वह चाहते थे कि अपने हल, वैल, हलवाहे रत्वे जायें और विधि-पूर्वक खेती की जाय। किन्तु खां साहब ने कहा, इतने आडम्बर की जरूरत नही, वैगार में बड़ी सुगमता से सीर हो सकती है। सौर के लिए बेगार जमीदार का हक है, उसे क्यो छोड़िए।

लेकिन सुव्यवस्या रूपी मधुर गाने में एक कटू स्वर भी था, जिससे उसका लालित्य भग हो जाता था। यह विद्यावती का असहयोग था। उसे अपने पति की स्वार्थपरता। एक अति न भाती थी। कभी-कभी यह मतिभेद विवाद और कलह का भी रूप धारण कर लेता था।

फागुन का महीना था। लाला प्रभाशकर घूमधाम से होली मनाया करते थे। अपने