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प्रेमाश्रम

वर्ष का हो चुका था, पर अभी तक कोई और बच्चा न होने के कारण वह शैशवावस्था के आन्नद भौगता था।

गायत्री ने पूछा, क्यों विद्या, आज थिएटर देखने चलती हो ?

विद्या--कोई अनुरोध करेगा तो चली चलूँगी, नहीं तो मेरा जी नहीं चाहता।

ज्ञान--तुम्हारी इच्छा हो तो चलो, मैं अनुरोध नहीं करता।

विद्या--तो फिर मैं भी नहीं जाती।

गायत्री--मैं अनुरोध करती हूँ, तुम्हे चलना पडेगा। बाबू जी, आप जगहे रिजर्व करा लीजिए।

नौ बजे रात को तीनो एक फिटन पर बैठ कर थिएटर को चले। माया भी साथ था। फिटन कुछ दूर चली आयी तो वह पानी-पानी चिल्लाने लगी। ज्ञानशकर ने विद्या से कहा, लड़के को ले कर चली थी, तो पानी की एक मुराही क्यों न रख ली?

विद्या--क्या जानती थी कि घर से निकलते ही इसे प्यास लग जायगी ?

ज्ञान--पानदान रखना तो न भूल गयी ?

विद्या--इसी से तो मैं कहती थी कि मैं न चलूँगी।

गायत्री–-थिएटर के हाते में बर्फ-पानी सब कुछ मिल जायगा।

माया यह सुन कर और भी अधीर हो गया। रो-रो कर दुनियाँ सिर पर उठा ली। ज्ञानशकर ने उसे बढावा दिया। वह और भी गला फाड-फाड कर बिलबिलाने लगा।

ज्ञान--जब अभी से यह हाल है, तो दो बजे रात तक न जाने क्या होगा?

गायत्री--कौन जागता रहेगा? जाते ही जाते तो सो जायेगा।

ज्ञान-–गोद में आराम से तो सो सकेगा नही, रह रह कर चौकेगा और रोयेगा। सारी सभा धवडा जायेगी। लोग कहेगें, यह पुछल्ला अच्छा साथ लेते आये ।

विद्या--कोचवान से कह क्यो नही देते कि गाडी लौटा दे, मैं न जाऊँगी।

ज्ञान--यह सब बाते पहले ही सोच लेनी चाहिए थी न ?गाडी यहाँ से लौटेगी तो आते-आते दस बज जायेगे। आधा तमाशा ही गायब हो जायेगा। वहाँ पहुँच जायें तो जी चाहे मजे से तमाशा देखना, माया को इसी गाड़ी में पड़े रहने देना या उचित समझना तो लौट आना।

गायत्री--वहाँ तक जा कर तो लौटना अच्छा नहीं लगता।

ज्ञान--मैंने तो सब कुछ इन्ही की इच्छा पर छोड़ दिया।

गायत्री--क्या वहाँ कोई आराम कुर्सी न मिल जायेगी ?

विद्या--यह सब झझट करने की जरूरत ही क्या है? मैं लौट आऊँगी। मैं तमाशा देखने को उत्सुक न थी, तुम्हारी खातिर से चली आयी थी।

थिएटर का पडाल आ गया। खूब जमाव था। ज्ञानशकर उतर पड़े। गायत्री ने विद्या से उतरने को कहा, पर वह बहुत आग्रह करने पर भी न उठी। कोचवान को पानी लाने को भेजा। इतने में ज्ञानशकर लपके हुए आये, और बोले, भाभी, जल्दी कीजिए, घटी हो गयी, तमाशा आरम्भ होने वाला है। जब तक यह माया को पानी