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प्रेमाश्रम

डालना मुनासिब नहीं समझा, लेकिन आज की मुमानियत सुन कर इनके होश उड़ गये हैं। पहले ही बेगार आसानी से न मिलती थी, अब जो लोग इस हुक्म की खबर पायेंगे तो और भी शेर हो जायेंगे। कल जो हंगामा हुआ उसका बानी-मबानी वही नौजवान था जो सुबह हुजूर की खिदमत में हाजिर हुआ था। उसकी कुछ तबीह होनी निहायत जरूरी है।

ज्वालासिंह-उसकी बात से तो मालूम होता था कि चपरासियों ने ही उसके साथ सख्ती की थी।

एक चपरासी-वह तो कहेगा ही, लेकिन खुदा गवाह है, हम लोग भाग न आये होते तो जान की खैर न थी। ऐसी जिल्लत आज तक कभी न हुई थी। हम लोग चार-चार पैसे के मुलाजिम हैं, पर हाकिमों के इकबाल से बड़ो-बड़ो की कोई हकीकत नहीं समझते।

गौस खाँ—हुजूर, वह लौंडा इन्तहा दर्जे का शरीर है। उसके मारे हम लोगों का गांव में रहना दुश्वार हो गया है। रोज एक न एक तूफान खड़ा किये रहता है।

दूसरा चपरासी- हुजूर ही लोगों की गुलामी में उम्र कटी, लेकिन कभी ऐसी दर्गति न हुई थी।

ईजाद हुसेन--हुजूर की रिआया-परवरी में कोई शक नहीं। हुक्काम को रहमदिल होना ही चाहिए, लेकिन हक तो यह है कि बेगार बंद हो जाय तो इन टके के आदमियों का किसी तरह गुजर ही न हो।

ज्वालासिंह-नहीं, मैं इन्हें तकलीफ नहीं देना चाहता। मेरी मंशा सिर्फ यह है कि रिआया पर वेजा सख्ती न हो। मैंने इन लोगों को जो हुक्म दिया है, उसमे इनकी जरूरतों को काफी लिहाज रखा है। मैं यह नही समझता कि सदर में यह लोग जिन चीजों के बगैर गुजर कर सकते हैं उनकी देहात में आ कर क्यों जरूरत पड़ती है।

चपरासी- हुजूर, हम लोगों को जैसे चाहे रखें, आपके गुलाम हैं पर इसमे हुजूर की बैरोबी होती है।

गौस खाँ-जी हाँ, यह देहाती लोग उसे हाकिम ही नहीं समझते जो इनके साथ नरमी में पेश आये। हुजूर को हिन्दुस्तानी समझ कर हीं यह लोग ऐसी दिलेरी करते हैं। अँगरेज हुक्काम आते है तो कोई चूँ भी नहीं करता। अभी दो हफ्ते होते हैं, पादरी साहय तशरीफ लाये थे और हफ्ते भर रहे, लेकिन सारा गाँव हाथ बाँचे खड़ा रहता था।

ईजाद हुसेन—आप बिल्कुल दुरुस्त फरमाते हैं। हिन्दुस्तानी हुक्काम को यह लोग हाकिम ही नहीं समझते, जब तक वह इनके साथ सख्ती न करें।

ज्वालासिंह ने अपनी मर्यादा बढ़ाने के लिए ही अँगरेजी रहन-सहन ग्रहण किया था। वह अपने को किसी अँगरेज से कम न समझते थे। अँगरेजों से मिलने जाते तो टोपी हाथ में ले लेते। जूते उतारने के अपमान से बच जाते। रेलगाड़ी में अँगरेजो के ही गाय बैठते थे। लोग अपनी धोलचाल में उन्हें साहब ही कहा करते थे। हिन्दुस्तानी समझना उन्हें गाली देना था। गौस खाँ और ईजाद हुसेन की बातें निशाने पर बैठ