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प्रेम-द्वादशी

अभी एक ही मास पहले वह सौ काम छोड़कर क्लब अवश्य जाते थे, वहाँ गये बिना उन्हें कल न पड़ती थी ; पर अब अधिकतर अपने कमरे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए समाचार पत्र और पुस्तकें देखा करते थे। मेरी समझ में न आता, कि बात क्या है ?

एक दिन उन्हें बड़े ज़ोर का बुखार आया, दिन-भर बेहोश पड़े रहे ; परन्तु मुझे उनके पास बैठने में अनकुस-सा लगता था। मेरा जी एक उपन्यास में लगा हुआ था । उनके पास जाती और पल-भर में फिर लौट आती थी। टेनिस का समय आया, तो दुविधा में पड़ गई, कि जाऊँ या न जाऊँ । देर तक मन में यह संग्राम होता रहा । अन्त को मैंने यही निर्णय किया, कि मेरे यहाँ रहने से यह कुछ अच्छे तो हो नहीं जायँगे, इससे मेरा यहाँ बैठा रहना बिलकुल निरर्थक है । मैंने बढ़िया वस्त्र पहने, और रैकेट लेकर क्लब-घर जा पहुँची। वहाँ मैंने मिसेज़ दास और मिसेज़ बागची से बाबूजी की दशा बतलाई, और सजल नेत्र चुपचाप बैठी रही। जब सब लोग कोर्ट में जाने लगे, और मिस्टर दास ने मुझसे चलने को कहा, तो मैं एक ठंडी अाह भरकर कोर्ट में जा पहुंची और खेलने लगी।

आज से तीन वर्ष पूर्व बाबूजी को इसी प्रकार बुखार आ गया था, मैं रात-भर उन्हें पंखा झलती रही थी । हृदय व्याकुल था, और यही जी चाहता था, कि इनके बदले मुझे बुखार आ जाय ; परन्तु यह उठ बैठे ! पर अब हृदय तो स्नेह-शून्य हो गया था, दिखावा अधिक था । अकेले रोने की मुझमें क्षमता न रह गई थी। मैं सदैव की भाँति रात को नौ बजे लौटी। बाबूजी का जी कुछ अच्छा जान पड़ा । उन्होंने मुझे केवल दबी दृष्टि से देखा, और करवट बदल ली ; परन्तु मैं लेटी, तो मेरा ही हृदय मुझे अपनी स्वार्थपरता और प्रमोदासक्ति पर धिक्कारता रहा ।

मैं अब अँगरेजी उपन्यासों को समझने लगी थी। हमारी बात- चीत अधिक उत्कृष्ट और आलोचनात्मक होती थी।

हमारी सभ्यता का आदर्श अब बहुत ही उच्च हो गया था। हमको अब अपनी मित्र-मंडली से बाहर दूसरों से मिलने-जुलने में संकोच होता था । अब हम अपने से छोटी श्रेणी के लोगों से बोलने में अपना