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पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/१८

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शांति

अपमान समझते थे। नौकरों को अपना नौकर समझते थे, और बस, हमको उनके निजी मामलों से कुछ मतलब न था। हम उनसे अलग रहकर उनके ऊपर अपना रब जमाये रखना चाहते थे । हमारी इच्छा यह थी, कि वह हम लोगों को साहब समझे । हिन्दुस्तानी स्त्रियों को देखकर मुझे उनसे घृणा होती थी ; उनमें शिष्टता न थी। खैर ।

बाबूजी का जी दूसरे दिन भी न सँभला । मैं क्लब न गई ; परन्तु जब लगातार तीन दिन तक उन्हें बुखार आता गया, और मिसेज़ दास ने बारम्बार एक नर्स बुलाने का आदेश किया, तो मैं सहमत हो गई। उस दिन से रोगी की सेवा-शुश्रूषा से छुट्टी पाकर बड़ा हर्ष हुआ । यद्यपि दो दिन मैं क्लब न गई थी ; परन्तु मेरा जी वहीं लगा रहता था ; बल्कि अपने भीरुता पूर्ण त्याग पर क्रोध भी अाता था ।

एक दिन तीसरे पहर मैं कुर्सी पर लेटी हुई एक अँगरेज़ी पुस्तक पढ़ रही थी। अचानक मन में यह विचार उठा, कि बाबूजी का बुखार असाध्य हो जाय, तो ? परन्तु इस विचार से मुझे लेश-मात्र भी दुःख न हुआ । मैं इस शोकमय कल्पना का मन-ही-मन आनन्द उठाने लगी। मिसेज़ दास, मिसेज़ नायडू, मिसेज़ श्रीवास्तव, मिस खरे, मिसेज़ शरग़ा अवश्य ही मातमपुर्सी करने आवेगी। उन्हें देखते ही मैं सजल नेत्र हो उठूँगी, और कहूँगी--बहनो ! मैं लुट गई। हाय, मैं लुट गई ! अब मेरा जीवन अँधेरी रात के भयावह वन या श्मशान के दीपक के समान है ! परन्तु मेरी अवस्था पर दुःख न प्रकट करो । मुझपर जो पड़ेगी, उसे मैं उस महान् आत्मा की मोक्ष के विचार से सह लूँगी ।

मैंने इस प्रकार मन में एक शोक-पूर्ण व्याख्यान की रचना कर डाली । यहाँ तक कि अपने उस वस्त्र के विषय में भी निश्चय कर लिया जो मृतक के साथ श्मशान जाते समय पहनूंगी।

इस घटना की शहर-भर में चर्चा हो जायगी। सारे कैंटोन्मेंट के लोग मुझे समवेदना के पत्र भेजेंगे। तब मैं उनका उत्तर समाचार-पत्रों में प्रकाशित करा दूंगी कि मैं प्रत्येक शोक-पत्र का उत्तर देने में असमर्थ हूँ। हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो गये हैं, उसे रोने के सिवा और किसी काम के हुआ।