पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४
प्रेम-द्वादशी

लिए समय नहीं है । मैं इस हमदर्दी के लिए उन लोगों की कृतज्ञ हूँ, और उनसे विनय-पूर्वक निवेदन करती हूँ, कि वे मृतक की आत्मा की सद्गति के निमित्त ईश्वर से प्रार्थना करें।

मैं इन्हीं विचारों में डूबी हुई थी, कि नर्स ने आकर कहा--आपको साहब याद करते हैं। यह मेरे क्लब जाने का समय था । मुझे उनका बुलाना अखर गया ; लेकिन क्या करती, किसी तरह उनके पास गई । बाबूजी को बीमार हुए लगभग एक मास हो गया था। वह अत्यन्त दुर्बल हो रहे थे। उन्होंने मेरी ओर विनय-पूर्ण दृष्टि से देखा । उसमें आँसू भरे हुए थे। मुझे उन पर दया आई । बैठ गई, और ढाढ़स देते हुए बोली--क्या करूँ ? कोई दूसरा डाक्टर बुलाऊँ ?

बाबूजी आँखें नीची करके अत्यन्त करुणा-भाव से बोले--मैं यहाँ कभी नहीं अच्छा हो सकता, मुझे अम्माँ के पास पहुँचा दो।

मैने कहा-क्या आप समझते हैं, कि वहाँ आपकी चिकित्सा यहाँ से अच्छी होगी?

बाबूजी बोले--क्या जाने क्यों मेरा जी अम्माँ के दर्शनों को लाला यित हो रहा है । मुझे ऐसा मालूम होता है कि मैं वहाँ बिना दवा-दर्पन के भी अच्छा हो जाऊँगा।

मैने--यह आपका केवल विचार-मात्र है।

बाबूजी--शायद ऐसा ही हो ; लेकिन मेरी यह विनय स्वीकार करो । मैं इस रोग से नहीं, इस जीवन से ही दुःखित हूँ।

मैंने अचरज से उनकी ओर देखा ।

बाबूजी फिर बोले--हाँ, मैं इस ज़िंदग़ी से तंग आ गया हूँ। मैं अब समझ रहा हूँ, कि मैं जिस स्वच्छ, लहराते हुए निर्मल जल की ओर दौड़ा जा रहा था, वह मरु-भूमि है । मैं इस प्रकार के जीवन के बाहरी रूप पर लट्टू हो रहा था ; परन्तु अब मुझे उसकी आन्तरिक अवस्थाओं का बोध हो रहा है । इन चार वर्षों में मैंने इस उपवन में खूब भ्रमण किया, और उसे आदि से अन्त तक कंटकमय पाया । यहाँ न तो हृदय की शांति है, न आत्मिक आनन्द ! यह एक उन्मत्त, अशान्तिमय, स्वार्थ पूर्ण विलास-