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पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/२०

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शांति

युक्त जीवन है । यहाँ न नीति है न धर्म, सहानुभूति न सहृदयता । परमात्मा के लिए मुझे इस अग्नि से बचायो । यदि और कोई उपाय न हो तो अम्माँ को एक पत्र ही लिख दो । वह अवश्य यहाँ आवेंगी। अपने अभागे पुत्र का दुःख उनसे न देखा जायगा । उन्हें इस सोसाइटी की हवा अभी नहीं लगी, वह आवेंगी। उनकी वह ममता-पूर्ण दृष्टि, वह स्नेह-पूर्ण सुश्रूषा मेरे लिए सौ औषधियों का काम करेगी । उनके मुख पर वह ज्योति प्रकाशमान होगी, जिसके लिए मेरे नेत्र तरस रहे हैं। उनके हृदय में स्नेह है, विश्वास है । यदि उनकी गोद में मैं मर भी जाऊँ तो मेरी आत्मा को शांति मिलेगी।

मैं समझी, कि यह बुखार की बकझक है । नर्सं से कहा--ज़रा इसका टेंपरेचर तो लो, मैं अभी डाक्टर के पास जाती हूँ। मेरा हृदय एक अज्ञात भव से काँपने लगा। नर्स ने थरमामीटर निकाला ; परन्तु ज्यों ही वह बाबूजी के समीप गई, उन्होंने उसके हाथ से वह यंत्र छीन- कर पृथ्वी पर पटक दिया। उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये। फिर मेरी ओर एक अवहेलना-पूर्ण दृष्टि से देखकर कहा-साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती हो कि मैं क्लब-घर जाती हूँ, जिसके लिये तुमने ये वस्त्र धारण किये हैं और गाउन पहनी है । खैर, उधर से घूमती हुई यदि डाक्टर के पास जाना, तो उनसे कह देना कि यहाँ टेंपरेचर उस बिन्दु पर आ पहुँचा है, जहाँ आग लग जाती है।

मैं और भी अधिक भयभीत हो गई । हृदय में एक करुण चिन्ता का संचार होने लगा । गला भर आया । बाबूजी ने नेत्र मूंद लिये थे, और उनकी साँस वेग से चल रही थी। मैं द्वार की ओर चली कि किसी को डाक्टर के पास भेजूँ । यइ फटकार सुनकर स्वयं कैसे जाती ? इतने में बाबूजी उठ बैठे और विनीत भाव से बोले--श्यामा, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ । बात दो सप्ताह से मन में थी ; पर साहस न हुआ । आज मैंने निश्चय कर लिया है कि कह ही डालू । मैं अब फिर अपने घर जाकर वही पहले की-सी जिन्दगी बिताना चाहता हूँ। मुझे अब इस जीवन से

घृणा हो गई है, और यही मेरी बीमारी का मुख्य कारण है । मुझे शारी-