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प्रेम-द्वादशी

रिक नहीं, मानसिक कष्ट है । मैं फिर तुम्हें वही पहले की-सी सलज्ज, नीचा सिर करके चलनेवाली, पूजा करनेवाली, रामायण पढ़नेवाली, घर का काम-काज करनेवाली, चरखा कातनेवाली, ईश्वर से डरनेवाली,पति- श्रद्धा से परिपूर्ण स्त्री देखना चाहता हूँ | मैं विश्वास करता हूँ, तुम मुझे निराश न करोगी। तुमको सोल हो पाने अपनी बनाना और सोलहो पाने तुम्हारा बनना चाहता हूँ। मैं अब समझ गया, कि उसी सादे पवित्र जीवन में वास्तविक सुख है। बोलो, स्वीकार है ? तुमने सदैव भेरी आज्ञाओं का पालन किया है, इस समय निराश न करना ; नहीं तो इस कष्ट और शोक का न जाने कितना भयंकर परिणाम हो !

मैं सहसा कोई उत्तर न दे सकी। मन में सोचने लगी--इस स्वतन्त्र जीवन में कितना सुख था ? ये मजे वहाँ कहाँ ? क्या इतने दिन स्वतन्त्र वायु में विचरण करने के पश्चात् फिर उसी पिंजड़े में जाऊँ ? वही लौड़ी बनकर रहूँ ? क्यों इन्होंने मुझे वर्षों स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया, वर्षों देवतों की, रामायण की, पूजा-पाठ की, व्रत-उपवास की बुराई की ; हँसी उड़ाई ? अब जब मैं उन बातों को भूल गई, उन्हें मिथ्या समझने लगी, तो फिर मुझे उसी अन्धकूप में ढकेलना चाहते हैं। मैं तो इन्हीं की इच्छा के अनुसार चलती हूँ, फिर मेरा अपराध क्या है ? लेकिन बाबूजी के मुख पर एक ऐसी दीनता पूर्ण विवशता थी, कि मैं प्रत्यक्ष अस्वीकार न कर सकी । बोली-आखिर आपको यहाँ क्या कष्ट है ?

मैं उनके विचारों की तह तक पहुँचना चाहती थी ।

बाबूजी फिर उठ बैठे, और मेरी ओर कठोर दृष्टि से देखकर बोले-- बहुत ही अच्छ होता,कि तुम इस प्रश्न को मुझसे पूछने के बदले अपने ही हृदय से पूछ लेती । क्या अब मैं तुम्हारे लिये वही हूँ, जो आज से तीन वर्ष पहले था ? जब मैं तुमसे अधिक शिक्षा प्राप्त, अधिक! बुद्धि- मान्, अधिक जानकार होकर तुम्हारे लिये वह नहीं रहा जो पहले था- तुमने चाहे इसका अनुभव न किया हो ; परन्तु मैं स्वयं कह रहा हूँ--तो मैं कैसे अनुमान करूँ, कि उन्हीं भावों ने तुम्हें स्खलित न किया होगा ? नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष चिह्न देख पड़ते हैं, कि तुम्हारे हृदय पर उन भावों