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प्रेम-द्वादशी

उन लोगों ने नदी-किनारे चिता बनाई और उसमें आग लगा दी। दो स्त्रियाँ चिग्घार कर रो रही थीं। इस विलाप का कुँअर साहब के चित्त पर कुछ प्रभाव न पड़ा। वह चित्त में लज्जित हो रहे थे, कि मैं कितना पाषाण-हृदय हूँ। एक दीन मनुष्य की लाश जल रही है, स्त्रियाँ रो रही हैं और मेरा हृदय तनिक भी नहीं पसीजता! पत्थर की मूर्ति की भाँति खड़ा हूँ! एकबारगी एक स्त्री ने रोते हुए कहा—'हाय मेरे राजा! तुम्हें विष कैसे मीठा लगा?' यह हृदय-विदारक विलाप सुनते ही कुँअर साहब के चित्त में एक घाव सा लग गया। करुणा सजग हो गई, और नेत्र अश्रु-पूर्ण हो गये। कदाचित् इस दुखिया ने विष पान करके प्राण दिये हैं। हाय! उसे विष कैसे मीठा लगा! इसमें कितनी करुणा है, कितना दुःख, कितना आश्चर्य! विष तो कड़वा पदार्थ है। वह क्यों कर मीठा हो गया! कटु विष के बदले जिसने अपने मधुर प्राण दे दिये, उस पर कोई बड़ी मुसीबत पड़ी होगी! ऐसी ही दशा में विष मधुर हो सकता है। कुँअर साहब तड़प गये। कारुणिक शब्द बार-बार उनके हृदय में गूँजते थे। अब उनसे वहाँ न खड़ा रहा गया। वह उन आदमियों के पास आये, और एक मनुष्य से पूछा—क्या बहुत दिनों से बीमार थे? इस मनुष्य ने कुँअर साहब की ओर आँसू भरे नेत्रों से देखकर कहा—नहीं साहब, कहाँ की बीमारी। अभी आज सन्ध्या तक भलीभाँति बातें कर रहे थे। मालूम नहीं, सन्ध्या को क्या खा लिया, कि खून की क़ै होने लगी। जब तक वैद्यराज के यहाँ जायँ, तब तक आँखें उलट गईं। नाड़ी छूट गई। वैद्यराज ने आकर देखा, तो कहा—अब क्या हो सकता है? अभी कुल बाईस-तेईस वर्ष की अवस्था थी। ऐसा पट्ठा सारे लखनऊ में नहीं था।

कुँअर—कुछ मालूम हुआ, विष क्यों खाया?

उस मनुष्य ने संदेह-दृष्टि से देखकर कहा—महाशय, और तो कोई बात नहीं हुई। जब से यह बड़ा बैंक टूटा है, बहुत उदास रहते थे। कई हज़ार रुपए बैंक में जमा किये थे। घी-दूध-मलाई की बड़ी दूकान थी। बिरादरी में मान था। वह सारी पूँजी डूब गई। हम लोग रोकते रहे, कि