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पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/४६

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बैंक का दिवाला

बैंक में रुपए मत जमा करो; किन्तु होनहार यह थी। किसी की नहीं सुनी। आज सवेरे स्त्री से गहने माँगते थे, कि गिरवी रखकर अहीरों को दूध के दाम दे दें। उससे बातों-बातों में झगड़ा हो गया। बस न जाने क्या खा लिया।

कुँअर साहब का हृदय काँप उठा। तुरन्त ध्यान आया—शिवदास तो नहीं है! पूछा—इनका नाम शिवदास तो नहीं था? उस मनुष्य ने विस्मय से देखकर कहा—हाँ, यही नाम था। क्या आप से जान-पहचान थी?

कुँअर—हाँ, हम और यह बहुत दिनों तक बरहल में साथ-साथ खेले थे। आज शाम को वह हमसे बैंक में मिले थे। यदि उन्होंने मुझसे तनिक भी चर्चा की होती, तो मैं यथाशक्ति उनकी सहायता करता। शोक!

उस मनुष्य ने अब ध्यान-पूर्वक कुँअर साहब को देखा, और जाकर स्त्रियों से कहा—चुप हो जाओ, बरहल के महाराजा आये हैं! इतना सुनते ही शिवदास की माता ज़ोर-ज़ोर से सिर पटकती और रोती हुई आकर कुँअर के पैरों पर गिर पड़ी। उसके मुख से केवल ये शब्द निकले—'बेटा, बचपन में जिसे तुम भैया कहा करते थे x x x' और गला रुँध गया।

कुँअर महाशय की आँखों से भी अश्रुपात हो रहा था। शिवदास की मूर्ति उनके सामने खड़ी यह कहती देख पड़ती थी, कि तुमने मित्र होकर मेरे प्राण लिये!

(७) भोर हो गया; परन्तु कुँअर साहब को नींद न आई। जब से वह गोमती-तीर से लौटे थे, उनके चित्त पर एक वैराग्य-सा छाया हुआ था। वह कारुणिक दृश्य उनके स्वार्थ के तर्कों को छिन्न-भिन्न किये देता था। सावित्री के विरोध, लल्ला के निराशा-युत हठ, और माता के कुछ शब्दों का अब उन्हें लेश-मात्र भी भय न था। सावित्री कुढ़ेगी, कुढ़े। लल्ला को भी संग्राम के क्षेत्र में कूदना पड़ेगा, कोई चिन्ता नहीं। माता