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प्रेम-द्वादशी

घबरा गये, कि उन पर इन बातों का कुछ असर ही न होता था। वे कहते थे—साहब, आप लोगों के कहने से सरकार से बुरे बनें। नुक़सान उठाने को तैयार हुए। रोजगार छोड़ा। कितनों के दिवाले हो गये। अफ़सरों को मुँह दिखाने लायक नहीं रहे। पहले जहाँ जाते थे, अधिकारी लोग 'आइये सेठजी' कहकर सम्मान करते थे, अब रेलगाड़ियों में धक्के खाते हैं; पर कोई नहीं सुनता। आमदनी चाहे कुछ हो या नहीं, बहियों की तौल देखकर कर (टैक्स) बढ़ा दिया जाता है। यह सब सहा और सहेंगे; लेकिन धर्म के मामले में हम आप लोगों का नेतृत्व नहीं स्वीकार कर सकते। जब एक विद्वान्, कुलीन, धर्मनिष्ठ ब्राह्मण हमारे ऊपर अन्न-जल त्याग कर रहा है, तब हम क्योंकर भोजन करके टाँगें फैलाकर सोवें? कहीं मर गया, तो भगवान् के सामने क्या जवाब देंगे?

सारांश यह कि कांग्रेसवालों की एक न चली। व्यापारियों का एक डेपुटेशन नव बजे रात को पंडितजी की सेवा में उपस्थित हुआ। पंडितजी ने आज भोजन तो खूब डटकर किया था। लेकिन भोजन डटकर करना उनके लिए कोई असाधारण बात न थी। महीने में प्रायः बीस दिन वह अवश्य ही न्योता पाते थे, और निमन्त्रण में डटकर भोजन करना एक स्वाभाविक बात है। अपने सहभोजियों की देखा-देखी, लाग-डाट की धुन में या गृह-स्वामी के सविनय आग्रह से और सबसे बढ़कर पदार्थों की उत्कृष्टता के कारण, भोजन मात्रा से अधिक हो ही जाता है। पंडितजी की जठराग्नि ऐसी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होती रहती थी, अतएव इस समय भोजन का समय आ जाने से उनकी नीयत कुछ डावाँ-डोल हो रही थी। यह बात नहीं कि वह भूख से व्याकुल थे; लेकिन भोजन का समय आ जाने पर अगर पेट अफरा हुआ न हो, अजीर्ण न हो गया हो, तो मन में एक प्रकार की भोजन की चाह होने लगती है। शास्त्रीजी की इस समय यही दशा हो रही थी। जी चाहता था, किसी खोंचेवाले को पुकारकर कुछ ले लेते; किन्तु अधिकारियों ने उनकी शरीर रक्षा के लिए वहाँ कई सिपाहियों को तैनात कर दिया था। वे सब हटने का नाम न लेते थे। पंडितजी की विशाल बुद्धि इस समय वही समस्या हल कर रही थी, कि