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प्रेम-द्वादशी


(६)

रात के नौ बज गये थे। सेठ भोंदूमल ने, जो व्यापारी-समाज के नेता थे, निश्चयात्मक भाव से कहा—मान लिया, पंडितजी ने स्वार्थ-वश ही यह अनुष्ठान किया है, पर इससे वह कष्ट तो कम नहीं हो सकता, जो अन्न-जल के बिना प्राणी-मात्र को होता है। यह धर्म-विरुद्ध है, कि एक ब्राह्मण हमारे ऊपर दाना-पानी त्याग दे, और हम पेट भर-भरकर चैन की नींद सोवें। अगर उन्होंने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, तो उसका दण्ड उन्हें भोगना पड़ेगा। हम क्यों अपने कर्तव्य से मुँह फेरें?

कांग्रेस के मंत्री ने दबी हुई आवाज़ से कहा—मुझे तो जो कुछ कहना था, वह मैं कह चुका। आप लोग समाज के नेता हैं, जो फ़ैसला कीजिये, हमें मंजूर है! चलिये, मैं भी आप के साथ चला चलूँगा। धर्म का कुछ अंश मुझे भी मिल जायगा; पर एक विनती सुन लीजिये। आप लोग पहले मुझे वहाँ जाने दीजिये। मैं एकान्त में उनसे दस मिनट बातें करना चाहता हूँ। आप लोग फाटक पर खड़े रहिएगा। जब मैं वहाँ से लौट आऊँ, तो फिर जाइयेगा। इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी? प्रार्थना स्वीकृत हो गई।

मंत्रीजी पुलिस विभाग में बहुत दिनों तक रह चुके थे, मानव-चरित्र की कमजोरियों को जानते थे। वह सीधे बाज़ार गये, और पाँच रुपए की मिठाई ली। उसमें मात्रा से अधिक सुगन्ध डालने का प्रयत्न किया, चाँदी के वरक़ लगबाये और एक दोना में लेकर रूठे हुए ब्रह्मदेव की पूजा करने चले। एक झंझर में ठण्ढा पानी लिया और उसमें केवड़े का जल मिलाया। दोनों ही चीजों से खुशबू की लपटें उड़ रही थीं। सुगन्ध में कितनी उत्तेजक शक्ति है, कौन नहीं जानता! इससे बिना भूख-की-भूख लग जाती है, भूखे आदमी की तो बात ही क्या?

पंडितजी इस समय भूमि पर अचेत पड़े हुए थे। रात को कुछ नहीं मिला। दस-पाँच छोटी-मोटी मिठाइयों का क्या ज़िक्र। दोपहर को कुछ नहीं मिला और इस वक्त भी भोजन की वेला टल गई थी। भूख में अब आशा की व्याकुलता नहीं, निराशा की शिथिलता थी। सारे अङ्ग ढीले