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गृह-दाह

भरकर कोसती। मगर दोनों भाइयों में प्रेम-पत्र-व्यवहार बरा- बर होता रहता था।

देवप्रकाश के स्वभाव में एक विचित्र उदासीनता प्रकट होने लगी। उन्होंने पेंशन ले ली थी, और प्राय धर्म-ग्रंथों का अध्ययन किया करते थे। ज्ञानप्रकाश ने भी 'आचार्य' की उपाधि प्राप्त कर ली थी, और एक विद्यालय में अध्यापक हो गए थे। देवप्रिया अब संसार में अकेली थी।

देवप्रिया अपने पुत्र को गृहस्थी को ओर खीचने के लिये नित्य टोने-टोटके किया करती। बिरादरी में कौन-सी कन्या सुंदर है, गुणवती है, सुशिक्षिता है―उसका बखान किया करती, पर ज्ञानप्रकाश को इन बातो के सुनने की भी फुरसत न थी।

मोहल्ले के और घरों में नित्य ही विवाह होते रहते थे। बहुएँ आती थी, उनकी गोद में बच्चे खेलने लगते थे, घर गुलजार हो जाता था। कही विदाई होती थी, कही बधाइयाँ आती थी, कही गाना-बजाना होता था, कही बाजे बजते थे। यह चहल पहल देखकर देवप्रिया का चित्त चंचल हो जाता। उसे मालूम होता, मैं ही संसार में सबसे अभागिनी हूँ। मेरे ही भाग्य में यह सुख भोगना नहीं बदा है। भगवान् ऐसा भी कोई दिन आवेगा कि मैं अपनी बहू का मुख चँद्र देखूँगी, बालकों को गोद में खिलाऊँगी। वह भी कोई दिन होगा कि मेरे घर में भी आनंदोत्सव के मधुर गान की ताने उठेगी! रात-दिन ये ही बातें सोचते-सोचते देवप्रिया की दशा उन्मादिनी की-सी हो गई।