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प्रेम-पंचमी

और विनय का आवाहन भी करते रहते थे। इससे उनके व्यव- हार में कृत्रिमता आ जाती, और वह शत्रूओं को उनकी ओर से और भी सशंक बना देती थी।

बादशाह ने एक अँगरेज़ मुसाहब से पूछा―“तुमको मालूम है, मैं तुम्हारी कितनी खातिर करता हूँ? मेरो सल्तनत में किसी की मजाल नहीं कि वह किसी अँगरेज़ को कड़ी निगाहो से देख सके।”

अंगरेंज़ मुसाहब ने सिर झुकाकर जवाब दिया―“हम हुज़ूर की इस मिहरबानी को कभी नहीं भूल सकते।”

बादशाह―इमामहुसेन की कसम, अगर यहाँ कोई आदमी तुम्हे तकलीफ दे, तो मैं उसे फौरन् ज़िदा दीवार में चुनवा दूँँ।

बादशाह की आदत थी कि वह बहुधा अपनी अँगरेज़ी टोपी हाथ में लेकर उसे उँगली पर नचाने लगते थे। रोज़ नचातें- नचातें टोपी में उँँगली का घर हो गया था। इस समय जो उन्होंने टोपी उठाकर उँगली पर रक्खी, तो टोपी में छेद हो गया। बादशाह का ध्यान अँगरेजो की तरफ था। बख्तावरसिंह बादशाह के मुँह से ऐसी बाते सुनकर कबाब हुए जाते थे। उक्त कथन में कितनी खुशामद, कितनी नीचता और अवध की प्रजा तथा राजा का कितना अपमान था; और लोग तो टोपी का छिद्र देखकर हँसने लगे, पर राजा बख्तावरसिंह के मुँँह से अनायास निकल गया―“हुजूर, ताज मे सूराख हो गया!”

राजा साहब के शत्रुओं ने तुरंत कानों पर उँगलियाँ रख