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राज्य-भक्त

होती। जेनरल आपका बाडी-गार्ड ( रक्षक ) है। उसे हमेशा हथियार-बंद रहना चाहिए। खासकर जब आपकी खिदमत में हो। न मालूम, किस वक्त जरूरत आ पड़े।”

दूसरे अँगरेज मुसाहबों ने भी इस विचार की पुष्टि की। बादशाह के क्रोध की ज्वाला कुछ शांत हुई। अगर ये ही बातें किसी हिदुस्थानी मुसाहब की जबान से निकली होतीं, तो उसकी जान की ख़ैरियत न थी। कदाचित् अँगरेज़ों को अपनी न्याय- परता का नमूना दिखाने ही के लिये उन्होने यह प्रश्न किया था। बोले―“कसम हज़रत इमाम की, तुम सब-के-सब शेर के मुँह से उसका शिकार छीनना चाहते हो! पर मैं एक न मानूँगा, बुलाओ कप्तान साहब को। मैं उनसे यही सवाल करता हूँ। अगर उन्होंने भी तुम लोगो के खयाल की ताईद की, तो इसकी जान न लूँगा! और, अगर उनकी राय इसके खिलाफ हुई, तो इस मक्कार को इसी वक्त़ जहन्नम भेज दूँँगा। मगर ख़बरदार, कोई उनकी तरफ किसी तरह का इशारा न करे; वर्ना मैं ज़रा भी रू-रियायत न करूँगा। सब-के-सब सिर झुकाए बैठे रहे।”

कप्तान साहब थे तो राजा साहब के आउरदे, पर इन दिनों बादशाह की उन पर विशेष कृपा थी। वह उन सच्चे राज्य- भक्तों में से थे, जो अपने को राजा का नहीं, राज्य का सेवक सम-झते हैं। वह दरबार से अलग रहते थे। बादशाह उनके कामों से बहुत संतुष्ट थे। एक आदमी तुरंत कप्तान साहब को बुला लाया। राजा साहब को जान उनकी मुट्ठी में थी। रोशनुद्दौला