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प्रेम-पंचमी

को छोड़कर शायद एक व्यक्ति भी ऐसा न था, जिसका हृदय आशा और निराशा से न धड़क रहा हो। सब मन में भगवान् से यही प्रार्थना कर रहे थे कि कप्तान साहब किसी तरह से इस समस्या को समझ जायँ। कप्तान साहब आए। उड़ती हुई दृष्टि से सभा की ओर देखा। सभी की आँखें नीचे झुकी हुई थीं। वह कुछ अनिश्चित भाव से सिर झुकाकर खड़े हो गए।

बादशाह ने पूछा―“मेरे मुसाहवो को अपनी जेब में भरी हुई पिस्तौल रखना मुनासिब है, या नहीं?”

दरवारियों को नीरवता, उनके आशंकित चेहरे और उनकी चिंता-युक्त अधीरता देखकर कप्तान साहब को वर्तमान समस्या की कुछ टोह मिल गई। वह निर्भीक भाव से बोले―“हुजूर, मेरे खयाल में तो यह उनका फर्ज़ है। बादशाह के दोस्त-दुश्मन सभी होते हैं; अगर मुसाहब लोग उनकी रक्षा का भार न लेंगे, तो कौन लेगा? उन्हें सिफ पिस्तौल ही नहीं, ओर भी छिपे हुए हथियारो से लैस रहना चाहिए। न-जाने कब हथियारो की ज़रूरत आ पड़े, तब वे ऐन वक्त़ पर कहाँ दौड़ते फिरगे।”

राजा साहब के जीवन के दिन बाकी थे। बादशाह ने निराश होकर कहा―“रोशन, इसे कत्ल मत करना, काल-कोठरी में कैद कर दो। मुझसे पूछ बग़ैर इसे दाना-पानी कुछ न दिया जाय। जाकर इसके घर का सारा माल-असबाब ज़ब्त कर लो, और सारे खानदान को जेल में बंद करा दो। इसके मकान की दीवारें जमीदोज़ करा देना। घर में एक फूटी हाँडी भी न रहने पावे।”