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प्रेम-पंचमी

की माजुली ( गद्दी से हटाए जाने ) पर एक आदमी भी आँसू न बहावेगा। लेकिन मैं जताए देता हूँ कि अगर इस वक्त़ तुमने बादशाह को दुश्मनों के हाथों से न बचाया, तो तुम हमेशा के लिये, अपने ही वतन में, ग़ुलामी की जंजीरों में बँध जाओगे। किसी ग़ैर कौम के चाकर बनकर अगर तुम्हे आफियत ( शांति ) भी मिली, तो वह आफियत न होगी; मौत होगी। गैरों के बेरहम पैरों के नीचे पड़कर तुम हाथ भी न हिला सकोगे, और यह उम्मीद कि कभी हमारे मुल्क में आईनी सल्तनत ( वैध-शासन ) कायम होगी, हसरत का दाग बनकर रह जायगी। नहीं, मुझमे अभी मुल्क की मुहब्बत बाक़ी है। मैं अभी इतना बेजान नहीं हुआ हूँ। मैं इतनी आसानी से सल्तनत को हाथ से न जाने दूँँगा, अपने को इतने सस्ते दामों ग़ैरों के हाथों न बेचूँँगा, मुल्क की इज्ज़त को न मिटने दूँँगा, चाहे इस कोशिश में मेरी जान ही क्यों न जाय। कुछ और नहीं कर सकता, अपनी जान तो दे ही सकता हूँ। मेरी बेड़ियाँ खोल दो।

कप्तान―मैं आपका ख़ादिम हूँ, मगर मुझे यह मजाज़ नहीं।

राजा―( जोश में आकर ) ज़ालिम, यह इन बातों का वक्त़ नहीं। एक-एक पल हमे तबाही की तरफ लिए जा रहा है। खोल दे ये बेड़ियाँ। जिस घर में आग लगी है, उसके आदमी खुदा को नहीं याद करते, कुएँ की तरफ दौड़ते हैं।