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प्रेम-पंचमी

९ बजे होंगे। सराफे सबसे ज्यादा रौनक थी। मगर आश्चर्य यह था कि किसी दूकान पर जवाहरात या गहने नहीं दिखाई देते थे। केवल आदमियों के आने-जाने की भीड़ थी। जिसे देखो, पाँचो शस्त्रों से सुसज्जित, मूछें खड़ी किए, ऐंठता हुआ चला जाता है। बाजार के मामूली दूकानदार भी निश्शस्त्र न थे।

सहसा एक आदमी, भारी साफा बाँधे, पैर को घुटनियों तक नीची कबा पहने, कमर में पटका बाँधे, आकर एक सराफ की दूकान पर खड़ा हो गया। जान पड़ता था, कोई ईरानी सौदागर है। उन दिनो ईरान के व्यापारी लखनऊ में बहुत आते-जाते थे। इस समय ऐसे किसी आदमी का आ जाना असाधारण बात न थी।

सराफ का नाम माधोदास था। बोला―“कहिए मीर साहब, कुछ दिखाऊँ?”

सौदागर―सोने का क्या निर्ख है?

माधो―( सौदागर के कान के पास मुँह ले जाकर ) निर्ख को कुछ न पूछिए। आज करीब एक महीने से बाज़ार का निर्ख बिगड़ा हुआ है। माल बाज़ार में आता ही नहीं। लोग दबाए हुए हैं; बाजारों में ख़ौफ के मारे नहीं लाते। अगर आपको ज्यादा माल दरकार हो, तो मेरे साथ ग़रीबखाने तक तकलीफ कीजिए! जैसा माल चाहिए, लीजिए। निर्ख़ मुनासिब ही होगा। इसका इतमीनान रखिए।