सौदागर―आजकल बाज़ार का निर्ख़ क्यों बिगड़ा हुआ है?
माधो―क्या आप हाल ही में वारिद हुए हैं?
सौदागर―हाँ, मैं आज ही आया हूँ। कहीं पहले की-सी रौनक नहीं नजर आती। कपड़े का बाज़ार भी सुस्त है। ढाके का एक कीमती थान बहुत तलाश करने पर भी नहीं मिला।
माधो―इसके बड़े किस्से हैं; कुछ ऐसा ही मुआमला है।
सौदागर―डाकुओं का ज़ोर तो नहीं है? पहले तो यहाँ इस किस्म की वारदाते नहीं होती थी।
माधो―अब वह कैफियत नहीं है। दिन-दहाड़े डाके पड़ते हैं। उन्हें कोतवाल क्या, बादशाह सलामत भी गिरफ्तार नहीं कर सकते। अब और क्या कहूँ। दीवार के भी कान होते है। कही कोई सुन ले, तो लेने के देने पड़ जायँ।
सौदागर―सेठजी, आप तो पहेलियाँ बुझवाने लगे। मैं परदेसी आदमी हूँ; यहाँ किससे कहने जाऊँगा। आखिर बात क्या है? बाजार क्यो इतना बिगड़ा हुआ है? नाज की मंडी की तरफ गया, तो वहाँ भी सन्नाटा छाया हुआ था। मोटी जिस भी दूने दामो पर बिक रही थी।
माधो―( इधर-उधर चौकन्नी आँखों से देखकर ) एक महीना हुआ, रोशनुद्दौला के हाथ में सियाह-सफेद करने का अख्तियार आ गया है। यह सब उन्ही की बदइंतजामी का फल है। उनके पहले राजा बख्तावरसिंह हमारे मालिक थे। उनके वक्त़ में किसी की मजाल न थी कि व्यापारियो को टेढ़ी आँख से देख