पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रेम-पूर्णिमा भानुकु बरिके हृदयमे कुठार-सा लगा। परदेसे निकल आयी और मुन्शीजीकी तरफ तेज ऑखोंसे देखकर बोली---आप क्या कहते हैं? आपने गाँव मेरे लिये लिया था या अपने लिये ? रुपये मैंने दिये या आपने ? उसपर जो खर्च पड़ा वह मेरा या आपका ? मेरी समझमें नहीं आता कि आप कैसी बातें करते हैं ? मुन्शीजीने सावधानीसे जवाब दिया--यह तो आप जानती ही हैं कि गॉव मेरे नामसे बय हुआ है। रुपया जरूर आपका लगा, पर उनका मै देनदार हूँ। रहा तहसील-वसूलका खर्च यह सब मैंने हमेशा अपने पाससे किया है। उसका हिसाब किताब, आय व्यय, सब अलग रखता आया हूँ। भानुकुवरिने क्रोधसे कॉपते हुए कहा-इस कपटका फल आपको अवश्य मिलेगा। आप इस निर्दयतासे मेरे बच्चोंका गला नही काट सकते। मुझे नहीं मालूम था कि आपने हृदयमें यह छुरी छिपा रखी है, नहीं तो यह नौबत ही क्यों आती। खैर, अबसे मेरी रोकड और बही खाता आप कुछ न छुएँ । मेरा जो कुछ होगा ले लूंगी। जाइये, एकान्तमे बैठकर सोचिये । पापसे किसीका भला नही होता। तुम समझते होगे कि ये बालक अनाथ हैं , इनकी सम्पत्ति हजम कर लूंगा। इस भूलमे न रहना। मैं तुम्हारे घरको ईट तक विकवा दूंगी। यह कहकर भानुकुवरि फिर परदेकी आड़मे आ बैठी और रोने लगी। स्त्रियों क्रोधके बाद किसी न किसी बहाने रोया करती हूँ। लाला साहबको कोई जवाब न सूझा । वहाँसे उठ आये और दफ्तरमें जाकर कुछ कागज उलट-पुलट करने लगे। पर भानु- वरि भी उनके पीछे-पीछे दफ्तरमे पहुंची और डॉटकर बोली-