पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
ईश्वरीय-न्याय
 

नीतिपर विजय पायी, उन्होंने अपने मनमें फैसला किया कि गाँव मेरा है। हॉ, मै भानुकुँ वरिका ३० हजारका ऋणी अवश्य हूँ। वे बहुत करेंगी अपने रुपये ले लेगी और क्या कर सकती है? मगर दोनों तरफ यह आग अन्दर-ही-अन्दर सुलगती रही। मुन्शीजी शस्त्रसजित होकर आक्रमणके इन्तजार में थे और भानु-कुॅवरि इसके लिये अच्छा अवसर ढूॅढ़ रही थी। एक दिन साहस करके उसने मुन्शीजीको अन्दर बुलाया और कहा—लालाजी 'बरगदा' में मन्दिरका काम कब लगवाइयेगा? उसे लिये आठ साल हो गये, अब काम लग जाय तो अच्छा हो। जिन्दगीका कौन ठिकाना, जो काम करना है उसे कर ही डालना चाहिये।

इस ढङ्गसे इस विषयको उठाकर भानुकुॅवरिने अपनी चतुराईका अच्छा परिचय दिया। मुन्शीजी भी दिलमें इसके कायल हो गये। जरा सोचकर बोले—इरादा तो मेरा कई बार हुआ, पर मौकेकी जमीन नहीं मिलती। गगातटकी सब जमीन असामियोंके जोतमें है और वह किसी तरह छोडनेपर राजी नहीं।

मानुकुॅवरि—यह बात तो आज मुझे मालूम हुई। आठ साल हुए इस गॉवके विषयमें आपने कभी भूलकर भी तो चर्चा नहीं की। मालूम नही, कितनी तहसील है, क्या मुनाफा है, कैसा गॉव है, कुछ सीर होती है या नही। जो कुछ करते हैं आप ही करते हैं और करेगे। पर मुझे भी तो मालूम होना चाहिये।

मुन्शीजी सॅभल बैठे। उन्हें मालूम हो गया कि इस चतुर स्त्रीसे बाजी ले जाना मुश्किल है। गाँव लेना ही है तो अब क्या डर। खुलकर बोले—आपको इससे सरोकार न था। इसलिए मैंने व्यर्थ कष्ट देना मुनासिब न समझा।