पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१०२

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धर्म सकट लखनऊमें अल्मोड थियेटर कम्पनी आयी हुई थी। शहरमें जहाँ देखिये उसीके तमाशेकी चर्चा थी। कामिनीकी रातें बड़े आनन्दसे कटती थीं। रातभर थियेटर देखती, दिनको कुछ सोती और कुछ देर वही थियेटरके गीत अलापती। सौन्दर्य और प्रीति के नवरमणीय ससारमें रमण करती थी, जहाँका दुःख और क्लेश भी इस ससारके सुख और आनन्दसे बढ़कर मोददायी है। यहाँतक कि तीन महीने बीत गये। प्रणयकी नित्य नको मनोहर शिक्षा और प्रेमके आनन्दमय आलाप-विलापका हृदय- पर कुछ-न-कुछ असर होना ही चाहिये था। सो भी इस चढ़ती जवानीमें । यह असर हुआ। इसका श्रीगणेश उसी तरह हुश जैसा कि बहुधा हुमा करता है। थियेटर हालमें एक सुघर सजीले युवककी ऑखे कामिनीकी ओर उठने लगीं। वह रूपवती और चञ्चला थी, अतएव पहिले उसे चितवनमें किसी रहस्यका ज्ञान न हुआ। नेत्रोंका सुन्दरतासे ?? बड़ा पना सम्बन्ध है। धरना पुरुषका और लंजाना स्त्रीका स्वभाव है। कुछ दिनोंके बाद कामिनीको इस चितवनमें कुछ गुप्त भाव झलकने लगे। मन्त्र अपना काम करने लगा। फिर नयनों में परस्पर बातें होने लगी। नयन मिल गये। प्रीति गाढ़ी हो गयी। कामिनी एक दिनके लिए भी यदि किसी दूसरे उत्सव- मे चली जाती तो वहाँ उसका मन न लगता। जी उन्चंटने लगता । ऑखें किसीको ढूढ़ा करतीं। अन्तमें लज्जाका बॉध टूट गया। हृदयके विचार स्वरूपवान