पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१०३

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प्रेम पूर्णिमा १०० हुए । मौनका ताला टूटा । प्रेमालाप होने लगा। पद्यके बाद गद्यकी बारी आयी और फिर दोनों मिलन-मन्दिरके द्वारपर आ पहुँचे। इसके पश्चात् जो कुछ हुआ उसकी झलक इस पहले ही देख चुके हैं। । [४] इस नवयुवकका नाम रूपचन्द था । पञ्जाबका रहनेवाला, संस्कृतका शास्त्री, हिन्दी साहित्यका पूर्ण पण्डित, अशरेजीका एम० ए०, लखनऊ के एक बड़े लोहेके कारखानेका मैनेजर था। घरमें रूपवती स्त्री, दो प्यारे बच्चे थे। अपने साथियोंमे सदा- चरणके लिए प्रसिद्ध था। न जवानीकी उमङ्ग, न स्वभावका छिछोरापन । घर-गृहस्थीमें जकड़ा हुआ था। मालूम नही वह कौनसा श्राकर्षण था, जिसने उसे इस तिलस्ममे फँसा लिया, जहाँकी भूमि अग्नि और आकाश ज्वाला है, जहाँ घृणा और पाप है और अभागी कामिनीको क्या कहा जाय जिसकी प्रीति- की बाढने धीरता और विवेकका' बॉध तोड़कर अपनी तरल तरङ्गमें नीति और मर्यादाकी टूटी फूटी झोपडीको डुबो दिया। यह पूर्वजन्मके सस्कार थे। रातके दस बज गये थे। कामिनी लैम्पके सामने बैठी हुई चिद्वियाँ लिख रही थी। पहला पत्र रूपचन्दके नाम था। कैलाश भवन, लखनऊ, प्राणाधार। तुम्हारे पत्रको पढ़कर प्राण निकल गये। उफ! अभी एक महीना लगेगा। इतने दिनोंमें कदाचित् तुम्हें यहाँ मेरी राख भी