पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१०४

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धर्म-संकट न मिलेगी। तुमसे अपने दुःख क्या रोऊँ। बनावटके दोषा- रोपणसे डरती हूँ। जो कुछ बीत रही है वह मैं ही जानती हूँ। लेकिन बिना विरह कथा सुनाए दिलकी जलन कैसे जायगी ! यह आग कैसे ठण्डी होगी? अब मुझे मालूम हुआ कि यदि प्रेम दहकती हुई आग है तो वियोग उसके लिये धृत है। थियेटर अब भी जाती हूँ, पर विनोदके लिये नही, रोने और विसूरनेके लिये, रोनेमें ही चित्तको कुछ शान्ति मिलती है, ऑसू उमड़े चले माते हैं। मेरा जीवन शुष्क और नीरस हो गया है। न किसीसे मिलनेको जी चाहता है न आमोद-प्रमोदमें मन लगता है। परसों डाक्टर केलकरका व्याख्यान था, भाई साहबने बहुत आग्रह किया, पर मै न जा सकी। प्यारे! मौतसे पहले मत मारो । आनन्दके इन गिने-गिनाये क्षणोंमें वियोगका दुःख मन दो। आओ, यथासाध्य शीघ्र आओ, और गलेसे लगकर मेरे हृदयकी ताप बुझाओ। अन्यथा आश्चर्य नहीं कि बिरहका यह अथाह सागर मुझे निगल जाय। तुम्हारी-कामिनी इसके बाद कामिनीने दूसरा पत्र पतिको लिखा । माई डियर गोपाल! अब तक तुम्हारे दो पत्र आये । परन्तु खेद, मै उनका उत्तर न दे सकी। दो सप्ताहसे सिरकी पीड़ासे असह्य वेदना सह रही हूँ। किसी भाति चित्तको शान्ति नहीं मिलती। पर अब कुछ स्वस्थ हूँ । कुछ चिन्ता मत करना । तुमने जो नाटक मेजे उनके लिये मैं हार्दिक धन्यवाद देती हूँ, स्वस्थ हो जानेपर पढ़ना