पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१०५

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प्रेममूर्णिमा १०२ आरम्भ करूँगी। तुम वहाँ के मनोहर दृश्योंका वर्णन मत किया करो। मुझे तुमपर ईश्या होती है। यदि मैं आग्रह करूं तो भाई साइब वहॉचक पहुँचा तो देंगे, परन्तु इनके वचे इतने अधिक हैं कि इनसे नियमित रूपसे साहाय्य मिलना कठिन है और इस समय तुमपर भार देना भी कठिन है, ईश्वर चाहेगा तो वह दिन शीघ्र देखनेमें आवेगा जब मै तुम्हारे साथ आनन्दपूर्वक यहॉकी सैर करूंगी। मैं इस समय तुम्हे कोई कष्ट तो नहीं देना चाहती पर अपनी आवश्यकताएँ किससे कहूँ। मेरे पास अबु- कोई अच्छा गाउन नहीं रहा । किसी उत्सबमें जाते लजाती हूँ। यदि तुमले हो सके तो मेरे लिये एक अपने पसन्दका गाउन बनवा कर भेज दो। आवश्यकता तो और भी कई चीजोंकी है परन्तु इस समय तुम्हें अधिक कष्ट देना नहीं चाहती। आशा है, तुम सकुशल होगे। तुम्हारी- कामिनी [ ५ ] लखनऊके सेशन जजके इजलाशमें बडी भीड़ थी। अदा- लसके कमरे ठसाठस भर गये थे। तिल रखनेकी जगह न थी। सबकी दृष्टि बड़ी उत्सुकताके साथ जजके सम्मुख खड़ी एक सुन्दर लावण्यमयी मूर्तिपर लगी हुई थी। यह कामिनी थी। उसका मुँह धूमिल हो रहा था। ललाटपर स्वेत विन्दु झलक रहे थे । कमरेमे घोर निस्तब्धता थी। केवल वकीलोंकी काना- कूली और सैन कभी-कभी इस निस्तब्धताको भंग कर देती थी।