पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१०६

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धर्म-संकट अदालतका हावा आदमियोंसे इस तरह भर गया था कि जान पड़ता था मानो सारा शहर सिमिटकर यहीं आ गया है। था भी ऐसा हो । शहरकी प्रायः दूकाने बन्द थीं और जो एक आध खुली भी थी उनपर लड़के बैठे ताश खेल रहे थे, क्योंकि कोई गाइक न था। शहरसे कचहरियोतक आदमियोंका तावा लगा झमा था । कामिनीको निमिषमात्र देखनेके लिये, उसके मुंहसे एक बात सुनने के लिए, इस समय प्रत्येक आदमी अपना सर्वख निछावर करनेपर तैयार था। वे लोग जो कभी पण्डित दाता दयाल शर्मा जैसे प्रभावशाली वक्ताकी वक्तृता सुननेके लिये सरसे बाहर नहीं निकले, वे जिन्होंने नवजवान मनचले बेटोको अलफड थियेटरमे जानेकी आशा नहीं दी, वे एकान्त-प्रिय जिन्हें वायसरायके शुभागन तककी खबर न हुई थी, वे शान्तिके उपसक ओ मुहर्रमकी चहलपहल देखनेको अपनी कुटियासे बाहर न निकलते थे, वे सभी आज गिरते पड़ते, उठते बैठते, कचहरीको और दौड़े चले जा रहे थे। बेचारी स्त्रिया अपने भाग्यको कोसती हुई अपनी अपनी अटारियोंपर चढकर विव- शतापूस उत्सुक दृष्टिसे उस तरफ ताक रही थी जिधर उनके विचारमें कचहरी थी। पर उनकी गरीब आँखें निर्दय अट्टालि. काओंकी दीवारोंसे टकराकर लौट आती थीं। यह सब कुछ इस- लिये हो रहा था कि आज अदालतमें एक बड़ा मनोहर अद्भुत अभिनय होनेवाला था, जिसपर अलर थियेटरके हजारों अभिनय बलिदान थे। आज एक गुप्तरहस्य खुलनेवाला था, जो अन्धेरे में राई है, पर प्रकाशमें पर्वताकार हो जाता है। इस घटनाके सम्बन्धमें लोग टीका टिप्पणी कर रहे थे। कोई कहता