पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१०८

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१०५ धर्म-संकट वह प्रीति, वह विरह-वेदना, वह प्रेमोद्गार, सब घोखेकी टट्टी यो। तूने कितनी बार कहा है कि दृढ़ता प्रेम मन्दिरकी पहिली सीढ़ी है। तू कितनी बार नयनोंमें आँसू भरकर इसी गोदमें मुँह छिपाकर मुझसे कहा है कि मैं तुम्हारी हो गयी। मेरी लाज अब तुम्हारे हाथमें है; परन्तु हाय! आज प्रेम-परीक्षाके समय तेरी वह सब बातें खोटी-उतरी । आह! तूने दगा दिया और मेरा जीवन मिट्टीमें मिला दिया। रूपचन्द वो विचार-तरंगोंमें निमम था। उनके वकीलने कामिनीसे जिरह करनी प्रारम्भ की। वकील-क्या तुम सत्यनिष्ठाके साथ कह सकती हो कि रूपचन्द तुम्हारे मकानपर अक्सर नहीं जाया करता था ? कामिनी- मैंने कभी उसे अपने घरपर नहीं देखा । वकील-क्या तुम शपथपूर्वक कह सकती हो कि तुम उसके भाथ कभी थियेटर देखने नहीं गयो ? कामिनी मैंने उसे कभी नहीं देखा। वकील- क्या तुम शपथ लेकर कह सकती हो कि तुमने उसे प्रेम-पत्र नहीं लिखे! शिकारके चगुलमें फंसे हुए पश्चीकी तरह पत्रका नाम सुनते ही कामिनीके होश हवाश उड़ गये, हाथ पैर फूल गये । मुंहन खुल सका । जजने, वकीलने और दो सहस्त्र आँखोंने उसकी तरफ उत्सुकतासे देखा। रूपचन्दका मुँह खिल गया। उसके हृदयमें आशाका उदय हुआ । जहाँ फूल था वहॉ कॉटा पैदा हुआ। मनमें कहने लगा--कुलटा कामिनी! अपने सुख और अपने कपट मान