पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१०९

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प्रेम पुर्णिमा प्रतिष्ठापर मेरे और मेरे परिवारकी हत्या करनेवाली कासिनी !! तू अब भी मेरे हाथमें है। मैं अब भी तुझे इस कृतमता और कपट- का दण्ड दे सकता हूँ। तेरे पत्र जिन्हें तूने सत्य हृदयसे लिखे हैं या नहीं, मालूम नहीं, परन्तु जो मेरे हृदयको तापको शीतल करनेके लिये मोहिनी मन्त्र थे, वह सब मेरे पास हैं और वह इसी समय तेरा सब भेद खोलेंगे। इस क्रोधसे उन्मत्त होकर रूपचन्दने अपने कोटकी पाकेंट में हाथ डाला। जजने, वकीलोंने और दो सहस्र नेत्रोंने उसकी तरफ चातककी भांति देखा। तब कामिनीको विकल आँखें चारों ओरसे हताश होकर रूपचन्दकी ओर पहुचीं। उनमें इस समय लज्जा थी, दयाभिक्षा- की प्रार्थना थी. और व्याकुलता थी, मन-ही-मन कहती थी-- मैं स्त्री हूँ. अबला हूँ, ओछी हूँ, तुम पुरुष हो, बलवान हो, साहसी हो, यह तुम्हारे स्वभावके विपरीत हैं। मैं कभी तुम्हारी थी और यद्यपि समय मुझे तुमसे अलग किए देता है, किन्तु मेरी लाज तुम्हारे हाथमें है, तुम मेरी रक्षा करो। आँखें मिलते ही रूपचंद उसके मनकी बात ताड़ गये। उनके नेत्रोंने उत्तर दिया- यदि तुम्हारी लाज मेरे हाथों में हैं तो इसपर कोई आँच नहीं आने पावेगी । तुम्हारी लाजपर आज मेरा सर्वस्व निछावर है। अभियुक्तके वकीलने कामिनीसे पुनः वहीं प्रश्न किया-क्या तुम शपथपूर्वक कह सकती हो कि तुमने रूपचन्दको प्रेमपत्र नहीं लिखे कामिनीने कातर स्वर में उत्तर दिया-मैं अपयंपूर्वक कहीं कि मैंने उसे कभी कोई पत्र नहीं दिखा और अदालतमे अपोल करती हूँ कि वह मुझे इन घृणास्पद अलील आक्रमोंसे बचावे।