पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१११

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१०९ दुर्गाका मन्दिर भामा-तो मैं कुछ बैठी या सोई तो नहीं हूँ, जरा एक घडी तुम्हीं लड़कोको बहला दोगे तो क्या होगा। कुछ मैंने ही उनकी नौकरी नही लिखायी! बाबू ब्रजनाथसे कोई जवाब न देवे बन पड़ा। क्रोध, पानी- के समान बहावका मार्ग न पाकर और भी प्रबल हो जाता है। उद्यपि ब्रजनाथ नैतिक सिद्धान्तोंके ज्ञाता थे, पर उनके पालनमें इस समय कुशल न दिखायी दी। मुद्दई और मुद्दालेह दोनोंको एक ही लाठी हॉका और दोनोंको रोते-चिलाते छोड़ कानूनका ग्रन्थ बगलमें दबा, कालेज पार्ककी राह ली। [२] सावनका महीना था। आज कई दिनके बाद बादल खुले थे, हरे-भरे वृक्ष सुनहरी चादरें ओढ़े खड़े थे। मृदुः समीर सावनके राग गाती थी और बगुले डालियोंपर बैठे हिंडोले मूल रहे थे। ब्रजनाथ एक बेचपर जा बैठे और किताब खोली, लेकिन इस ग्रन्थकी अपेक्षा प्रकृति ग्रन्थका अवलोकन अधिक चित्ता- कर्षक था। कभी आसमानको पढ़ते थे, कमी पत्तियोंको, कभी छविमयी हरियालीको और कभी सामने मैदानमें खेलते हुए लड़कोंको। यकायक उन्हें सामने घासपर कागजकी एक पुड़िया दिखाई दी। मायाने जिज्ञासाकी आपमें कहा-देखें इसमें क्या है? बुद्धिने कहा-तुमसे मतलब? पड़ी रहने दो। लेकिन जिज्ञासा-रूपी मायाकी जीत हुई। ब्रजनाथने उठकर पुड़िया उठा ली । कदाचित् किसीके पैसे पुड़ियामें लिपटे गिर