पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/११४

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प्रेम-पूर्णिमा बैठ गये और अपनी पारिवारिक दुश्चिन्ताओंकी विस्तृत राम कहानी सुनाकर अत्यन्त विनयभाक्से बोले- भाई साइब, इस समय मैं इन झराहटोंमें ऐसा फंस गया हूँ कि बुद्धि कुछ काम नहीं करती। तुम बड़े आदमी हो। इस समय कुछ सहायता करो ! ज्यादा नहीं, तीस रुपये दे दो। किसी-न-किसी तरह काम चला गा। आज ता० ३० है । कल शामको तुम्हें रुपये मिल जायेंगे। ब्रजनाथ बड़े आदमी तो न थे, किन्तु बड़प्पनकी हवा बाँध रखी थी। यह मिथ्याभिमान उनके स्वभाषकी एक दुर्बलता यी! केवल अपने वैभवका प्रभाव डालनेके लिये ही वे बहुधा मित्रों- की छोटी मोटी आवश्यकताओपर अपनी वास्तविक आवश्यकता- ओंका अर्पण कर दिया करते थे। लेकिन भामाको इस विषयमें उनसे सहानुभूति न थी। वह दिखानेके लिये इस आत्म-त्यागको व्यर्थ समझती थी । इसलिये जब ब्रजनाथपर इस प्रकारका संकट आ पहना था, तब थोड़ी देरके लिये उनकी पारिवारिक शान्ति अवश्य भङ्ग हो जाती थी। उनमें इन्कार करने या गलनेको हिम्मत न थी। वे कुछ सकुचाते हुए भामाके पास गये और बोले-तुम्हारे पास तीस रुपये तो न होंगे? मुन्धी गोरेलाल मांग रहे हैं। भामाने रुखाईसे कहा - मेरे पास रुपये नहीं हैं। ब्रजनाथ-होंगे तो जरूर, बहाना करती हो। भामा-अच्छा, बहाना ही सही। ब्रजनाथ-तो में उनसे क्या कह दूं? भामा--कह दो, घरमें रुपये नहीं हैं, तुमसे न कहते बने चो मैं पर्देकी आइसे कह दूं।