पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/११५

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दुर्गाका मन्दिर ब्रजनाथ-कहने को तो मैं कह दूं, लेकिन उन्हें विश्वास न आवेगा, समझेंगे बहाना कर रहे हैं। भामा-समझेगे; समझा करें। ब्रजनाथ-मुझसे तो ऐसी बेमुरौवती नहीं हो सकती। रात दिन का साथ ठहरा कैसे इन्कार करूँ? भामा-अच्छा, तो जो मनमें आवे सो करो। मैं एक बार कह चुकी हूँ कि मेरे पास रुपये नही है। ब्रजनाथ मनमें बहुत खिन्न हुए। उन्हें विश्वास था कि भामाके पास रुपये हैं, लेकिन केवल मुझे लजित करनेके लिये इन्कार कर रही है । दुराग्रहने सङ्कल्पको इद कर दिया। सन्दूक से दो गिधियों निकालों और गोरेलालको देकर बोले-भाई कल शामको कचहरीसे आते ही रुपये दे आना । ये एक आदमी- की अमानत हैं। मैं इसी समय देने जा रहा था। यदि कल रुपये न पहुँचे तो मुझे बहुत लज्जित होना पड़ेगा; कही मुंह दिखाने योग्य न रहूँगा। गोरेलालने मन में कहा-अमानत स्त्रीके सिवा और किसकी होगी और गिनियाँ जेबमे रखकर घरकी राह ली। [४] आज पहली वारीखकी सन्ध्या है। ब्रजनाथ दरवाजेपर बैठे हुए गोरेलालका इन्तजार कर रहे हैं। पाँच बज गये, गोरेलाल अभीतक नहीं आये। ब्रजनाथकी आँख रास्तेकी तरफ लगी हुई थी। हाथमें एक पत्र था। लेकिन महनेमें जी न लगता था। हर तीसरे मिनट रास्तेकी ओर देखने