पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/११७

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दुर्गाका मन्दिर बार्ने हो सकती हैं। या तो उन्होंने कल आनेका निश्चय कर लिया, समझे होंगे कि रातको कौन जाय या जान-बूझकर कै रहे होंगे; देना न चाहते होंगे। उस समय उनकी गरज थी इस समय मेरी गरज है। मैं ही किसीको क्यों न भेज दूं, लेकिन किसे मेनँ ! मन्नू जा सकता है । सड़क हीपर मकान है। यह मोच- कर कमरेमे गये। लैम्प अलाया और पत्र लिखने बैठे, मगर आँखें द्वार होकी ओर लगी हुई थीं। अकस्मात् किसीके पैरकी आहट सुनाई दी। तुरन्त पत्रको एक किताबके नीचे दबा लिया और बरामदे में चले आये। देखा तो पड़ोसका एक कुजड़ा है, तार पढ़ाने आया है। उससे बोले-भाई, इस समय फुरसत नहीं है, थोड़ी देरमें आना। उसने कहा-बाबूजी, घरफ्रके प्राणी घबराये हैं, जरा एक निगाह देख लीजिये। निदान ब्रजनाथने व झलाकर उसके हायसे लार ले लिया। और सरसरी दृष्टिसे देखकर बोले- कलकत्ते से आया है, भाल नहीं पहुंचा। कुजने डरते-डरते कहा-बाबूजी, इतना और देख लीजिये कि किसने मेजा है। इसपर ब्रजनाथने वारको फेक दिया और बोले-मुझे इस वक फुरसत नहीं है। आठ बज गये । ब्रजनाथको निराशा होने लगी। मन इतनी रात बीते नहीं जा सकता । मनमें निश्चय किया, मुझे आपही जाना चाहिये । बलासे बुरा मानेंगे। इसकी कहाँतक चिन्ता करूँ। स्पष्ट कह दूंगा, मेरे रुपये दे दो। भलमनसो भलेमानसोंसे निभायी