पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/११८

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प्रेम-पूणिमा ज्या सकती है। ऐसे धूतों के साथ मलमनसीका व्यवहार करना मूर्खता है। अचकन पहनी । घरमें जाकर भामासे कहा-जरा एक कामसे बाहर जाता हूँ किवाड़ बन्द कर लो। चलनेको तो चले, लेकिन पग-पगपर रुकते जाते थे। गोरे- लालका घर दूरसे दिखायी दिया; लैम्प जल रहा था। ठिठक गये और सोचने लगे-चलकर क्या कहूँगा? कही उन्होने जाते-जाते रुपये निकालकर दे दिये और देरीके लिये क्षमा मागी, तो मुझे बड़ी झेप होगी। वे मुझे क्षुद्र, ओछा, धैर्यहीन समझेगे। नही, रुपयेकी बातचीस करूँ ही क्यों ? कहूँगा, भाई घरमे बड़ी देरसे पेट दर्द कर रहा है, तुम्हारे पास पुराना तेज सिरका तो नही है, मगर नही. यह बहाना कुछ भद्दा सा प्रतीत होता है। साफ कलई खुल जायगी ! उँह ! इस अझटकी जरूरत ही क्या है। वे मुझे देखकर खुद ही समझ जायेंगे। इस विषयमे बात- चीतको कुछ नौबत ही न आवेगी। ब्रजनाथ इसी उधेड़ बुनमे आगे बढ़ते चले जाते थे जैसे नदीकी लहरे चाहे किसी ओर चले, धारा अपना मार्ग नहीं छोड़ती। गोरेलालका घर आ गया । द्वार बन्द था। ब्रजनाथको उन्हे पुकारनेका साहस न हुआ। समझे खाना खा रहे होंगे । दरवाजे के सामनेसे निकले और धीरे-धीरे टहलते हुए एक मीलतक चले गये। ९ बजनेकी आवाज कानमे आयी। गोरेलाल भोजन कर चुके होंगे, यह सोचकर लौट पडे । लेकिन द्वारपर पहुंचे तो अन्धेरा था। वह आकाशरूपी दीपक बुझ गया था। एक मिनट- तक दुविधामे खड़े रहे। क्या करूँ ? हों, अभी बहुत सबेरा है। ऋतनी जल्दी थोड़े ही सो गये होंगे। दबे पाँव बरामदेयर चढ़े।