११७ दुर्गाका मन्दिर द्वापर कान लगाकर सुना, चारों ओर ताक रहे थे कि कहीं कोई देख न ले। कुछ बातचीतकी भनक कानमें पड़ी। ध्यानसे सुना । स्त्री कह रही थी-रुपये तो सब उठ गये, ब्रजनाथको हासे दोगे। गोरेलालने उत्तर दिया-ऐसी कौन-सी उतावली है, फिर दे देंगे आज दरखास्त दे दी है। कल मजुर हो जायगी, तीन महीनेके बाद लौटेंगे तो देखा जायगा। ब्रजनाथको ऐसा जान पड़ा मानों में हपर किसीने तमाचा मार दिया । क्रोध और नैराश्यसे भरे हुए बरामदेसे उतर आये। घर चले तो सीधे कदम न पड़ते थे, जैसे दिनभरका थका- मॉदा पथिक। अजनाथ रावभर करवटे बदलते रहे। कभी गोरेलालकी धूत वापर क्रोध आता था। कभी अपनी सरलतापर ऋोध होता था। मालूम नही, किस गरीबके रुपये हैं, उसपर क्या बीती होगी। लेकिन अब क्रोध या खेदसे क्या लाभ ? सोचने लगे- रुपये कहासे आगे, भामा पहले ही इन्कार कर चुकी है, वेतनमें इतनी गुञ्जायश नहीं; दस पाँच रुपयेकी बाच होती तो कोई कतर- व्योत तो करता । तो क्या करूँ किसीसे उधार ? मगर मुझे कौन देण! आजतक किसीसे मॉगनेका सयोग नहीं पड़ा और अपना कोई ऐसा मित्र है भी तो नहीं। जो लोग है मुझीको सताया करते हैं, मुझे क्या देंगे। हॉ, यदि कुछ दिन कानून छोड़कर अनुवाद करनेमें परिश्रम करूं तो रुपये मिल सकते हैं। कम-से-कम एक मासका कठिन परिश्रम है। सस्ते अनुवाद'कोंके