पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१२०

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प्रेम पूर्णिमा मारे दर भी तो गिर गयी। हा निर्दयी! तूने बना दगा किया। न जाने किस जन्मका र चुकाया। कहीका न रखा! दूसरे दिनसे ब्रजनाथको रुपयोंकी धुन सवार हुई । सवेरे कानूनके लेक्चरमे सम्मिलित होते । सन्ध्याको कचहरीसे तज- कीजोंका पुलिन्दा घर लाते और आधी राततक बैठे अनुवाद किया करते। सिर उठानेकी मुहलत न मिलती। कभी एक दो भी बज जाते। जब मस्तिष्क बिलकुल शिथिल हो जाता, तब विवश होकर चारपाई पर पड़ रहते। लेकिन इतने परिश्रमका अभ्यास न होनेके कारण कभी-कभी सिरमें दर्द होने लगता। कभी पाचन-क्रियामें विघ्न पड़ जाता, कभी ज्वर चढ आता । तिसपर भी वे मैशीनकी तरह काममें लगे रहते। भामा कभी-कभी हुँझलाकर कहती-'अजी लेट भी रहो ; बड़े धर्मात्मा बने हो। तुम्हारे जैसे दस पाँच आदमी और होते तो ससारका काम ही बन्द हो जाता है। ब्रजनाथ इस वाघाकारी व्यगका कोई उत्तर न देते। दिन निकलते ही फिर वही चरखा ले बैठते। यहॉतक कि तीन ससाह बीत गये और २५) हाथ आ गये। ब्रजनाथ सोचते थे, कि दो तीन दिनमें बेड़ा पार है। लेकिन इक्कीसवें दिन उन्दै प्रचण्ड ज्वर चढ आया और तीन दिनतक न उतरा । छुट्टी लेनी पड़ी । शय्या सेवी बन गये। भादोका महीना था। मामाने समझा कि पित्तका प्रकोप है। लेकिन जब एक सप्ताहतक डाक्टरकी औषधि सेवन करनेपर मी ज्वर न उतरा तब वह घबराई । ब्रजनाथ प्रायः ज्वरमें बक्षक भी करने लगते मामा सुनकर उरके मारे कमरेसे भाग जाती। बच्चोंको परिकार